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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 89 स्वार्थपरायणता पर चर्चा करने की अवहेलना नहीं करता है और विशेष रूप से पारस्परिक अनुग्रह के कर्तव्यों को कर्ता के सांसारिक लाभ के परिणामों की अभिव्यक्ति के द्वारा लागू करता है। यह प्रतीत होता है कि कुछ ऐसी स्थितियां भी है, जिनमें स्वहित (कार्य साधकता) और सद्गुण में स्पष्ट विरोध होता है। उन स्थितियों में सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है, तथापि यह माना जाता है कि सद्गुण सदैव ही कार्य साधक (हित साधक) होते हैं, किंतु यह एक स्पष्ट बात है कि सद्गुण की सिद्धि के लिए किस सीमा तक कर्ता को अपने सांसारिक हितों का सामाजिक कर्तव्यों के लिए बलिदान करना होता है। यह एक विवादास्पद प्रश्न है कि कहां तक एक व्यापारी भाव मोल करने में उन परिस्थितियों को उजागर करने के लिए बाध्य है, जो कि भौतिक दृष्टि से उसके वस्तुओं (सौदे ) के मूल्य को प्रभावित करती है। मानवीय चिंतन के विकास में दर्शन की अपेक्षा न्यायशास्त्र में रोम का स्वतंत्र योगदान महत्त्वपूर्ण है, इसलिए सिसरो के विचारों पर स्टोइक प्रभाव की सबसे रुचिकर अभिव्यक्ति उसकी नैतिक विवेचना के न्यायिक पहलू में देखने को मिलती है। हम यह भी देख चुके हैं कि स्टोइकवाद का मुख्य लक्षण उस नियम की धारणा है, जो सभी मनुष्यों पर बुद्धिमान प्राणी होने के कारण तथा बुद्धिमान प्राणियों के जगत् का सदस्य होने होता है। जो एक दैवीय एवं शाश्वत नियम है तथा जो विशेष राजनीतिक संस्थानों के नियमों से प्रामाणिकता एवं महानता में अधिक श्रेष्ठ है। इस धारणा को प्रमुखता देने के कारण स्टोइकवाद ने नीतिशास्त्र के प्राचीन ग्रीक दृष्टिकोण का इस आधुनिक दृष्टिकोण में रूपांतरण कर दिया। नीतिशास्त्र के प्राचीन ग्रीक दृष्टिकोण सद्गुण और शुभ के प्रत्यय प्रमुख थे, जबकि आधुनिक दृष्टिकोण में - नैतिक नियम का अध्ययन प्रमुख माना गया है। इस रूपांतरण में सिसरो ने जो भाग लिया, वह ऐतिहासिक महत्व का है। उसने ईश्वर, प्रज्ञा या प्रकृति से प्रकट होने वाले इस अपरिवर्तनीय नियम को उन सभी दार्शनिक प्रत्ययों की अपेक्षा, जिनको उसने ग्रीक चिंतन से रोमीय चिंतन में हस्तांतरण करने का प्रत्यन किया था, अधिक यथार्थ सारणीकरण के द्वारा ग्रहण किया। नैतिक दृष्टि से उसके लेखनों में जो प्रभावपूर्ण अंश हैं, वे वही हैं, जिनमें उसने इस नियम की चर्चा की है। कर्म को वह एक वस्तुनिष्ठ नियम मान लेता है जो कि देश और काल से परे होकर सभी व्यक्तियों के लिए प्रमाण है और उसकी प्रामाणिकता किसी भी विधान से, जो कि उसके विरोध में जाता है, अधिक है। कभी वह उसे आत्मनिष्ठ रूप में परम प्रज्ञा मान लेता है जो कि प्रत्येक
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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