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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 76 इस 'चयन' या अस्वीकृति के यथोचित सुसंगत अभ्यास में ही प्रज्ञा की व्यावहारिक उपयोगिता प्रकट होती है। इसी आधार पर स्वास्थ्य, शक्ति सम्पत्ति और सम्मान 5 आदि सभी या अनेकों चीजे सामान्यत शुभ मानकर मांग ली जाती हैं और वे मनीषी के चयन के सीमा क्षेत्र में आ जाती हैं। यद्यपि व्यक्ति का वास्तविक शुभ पूर्णतया चयन करने वाली प्रज्ञा में ही निहित रहता है, चयन की जाने वाली वस्तु में नहीं, जिस प्रकार कि एक धनुर्धारी चिड़िया की आंख को अपना लक्ष्य तो बनाता है, किंतु वह लक्ष्य उसका साध्य नहीं होता है, उसका साध्य तो उसका वैध करके " अपनी कला का प्रदर्शन करना होता है। उपरोक्त अंतर की उदाहरण सहित व्याख्या हमें स्टोइको की व्यावहारिक शिक्षाओं के एक उदाहरण में मिलती है। यह उदाहरण है उनके द्वारा आत्महत्या को दिया गया प्रोत्साहन । उनके द्वारा आत्महत्या के लिए दिया गया यह प्रोत्साहन आधुनिक पाठक को कभी कभी उलझन में डाल देता है। प्रथमतया सहनशीलता सद्गुण उनकी अनुशंसा और संसार की दैवीय व्यवस्था में उनके विश्वास से तुलना करने पर हमें इसे असंगत पाते हैं। मनुष्य सामान्यतया दुःखों से उबकर आत्महत्या की ओर प्रवृत्त होता है, किंतु एक मनीषी जिसके लिए दुःख कोई बुराई नहीं है, कैसे दैवीय प्रज्ञा के द्वारा प्रदत्त अपने पद को छोड़कर आत्महत्या की ओर अग्रसर हो सकता है ? इस सम्बंध में स्टोइक का उत्तर यह है कि यद्यपि दुःख बुराई नहीं है, किंतु फिर भी यदि दुःखरहित अवस्था सम्यक् तथा प्राप्तव्य है तो दुःख वह विकल्प है जिसका निरसन किया जाना है। दूसरी ओर प्रज्ञा की दृष्टि से भी जीवन शुभ नहीं है यद्यपि जीवन का रक्षण सामान्यतया अच्छा माना जाता है किंतु ऐसे अवसर भी आते हैं जब मनीषी को अभ्रांत एवं स्वाभाविक रूप से ऐसा लगता है कि जीवन की अपेक्षा मृत्यु ही वरेण्य है। स्टोइक मानते हैं कि ऐसा बोध विकलांगता, असाध्य रोग और घोर विपत्तियों यहां तक कि अत्यधिक पीड़ा की अवस्था में भी होता है। यदि ऐसा बोध स्पष्ट है तो प्रकृति या ईश्वर के (आत्महत्या) इन निर्देशनों के पालन में बुद्धि और शक्ति की अभिव्यक्ति उतनी ही उचित होगी, जितनी दूसरे अवसरों पर सुख एवं दुःख के प्रलोभनों का प्रतिरोध करने में होती है। अभी तक हमने मनुष्य की प्रकृति के सम्बंध में उसके सामाजिक सम्बंधों से अलग हटकर विचार किया है, किंतु यह स्पष्ट है कि सद्गुणों का क्षेत्र तो सामान्यतया इन्हीं मानवीय सामाजिक सम्बंधों में रहा हुआ है और यह बात स्टोइकों
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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