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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 75 मान्यता बनी है कि मानवीय कल्याण के लिए प्रज्ञा पूर्णतया सक्षम है, जो कि ब्रह्माण्डीय सत्ता का मूल है और दूसरे इसमें धार्मिक एवं सामाजिक भावनाओं के लिए एक वातावरण प्रस्तुत किया है। प्रज्ञा की साधना (अभ्यास) को ईश्वरीय द्रव्य के एक अंश के विशुद्ध जीवन के रूप में माना गया है। वस्तुतः यह सत्य है कि वस्तुतः व्यक्ति में ईश्वर है। बुद्धि, जिसकी सर्वोच्चता को उन्होंने स्वीकार किया था, वह ज्यूस की, सभी देवताओं की और बौद्धिक मनुष्यों की बुद्धि थी, जो उनकी अपनी बुद्धि की अपेक्षा कम नहीं थी। इस प्रकार उस बुद्धि (प्रज्ञा) की किसी एक व्यक्ति में उपलब्धि (सिद्धि) भी सभी बौद्धिक प्राणियों का सामान्य शुभ था। एक सत या मनीषी अपनी एक अंगुली को भी सम्यक् या उचित रूप से नहीं पसार सकता है यदि उस प्रसारण से दूसरे सभी मनीषियों को कोई लाभ नहीं होता है और न वह यह कह सकता है कि वह ज्यूस के लिए उसी प्रकार उपयोगी है, जैसाकि ज्यूस उसके लिए उपयोगी है। हम यह जानते हैं कि बौद्धिक प्राणियों की बुद्धि की इस एकता की धारणा में मित्र तथा अच्छी संतान का होना भी मनीषी का एक बाह्य शुभ माना गया है। पुनः, इसी बुद्धि की एकता के प्रत्यय से मानवीय जीवन के उच्च एवं भिन्न पक्षों में समन्वय करने का प्रयास किया गया है। इससे इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि अबौद्धिक मनुष्य भी अपनी मूल रचना की दृष्टि से देवी कृति है। उसकी चेतन क्रियाओं में निहित बौद्धिक संकल्प ही इसका संकेत है। वस्तुतः, मानवीय जीवन की प्रथमावस्था में, जब तक कि बुद्धि का पूर्ण विकास नहीं होता है, प्राकृतिक आवेग ही हमारा निर्देशन करते हैं, बाद में बुद्धि निर्देशन का कार्य करने लगती है। इस प्रकार प्रकृति के अनुरूप जीवन जीने का सिद्धांत जब मनुष्यों को एक बुद्धिमान् प्राणी मानकर लागू किया जाता है तो उस स्थिति में इसे दो रूपों में समझा जा सकता है? एक तो यह कि बुद्धि को शासन करना है, दूसरा यह कि शासन व्यावहारिक रूप में किस प्रकार किया जाए। दूसरे प्राणियों के समान ही मनुष्य में उसके जन्म से ही प्राकृतिक आवेग आत्मरक्षण के लिए एवं शारीरिक स्थिति को अपनी मौलिक एकता में बनाए रखने के लिए तत्पर रहते है। जब बुद्धि का विकास हो जाता है और जब बुद्धि अपने को अपने सम्पूर्ण शुभ के रूप में जान लेती है, तब भी ये प्राथमिक प्राकृतिक साध्य (आवश्यकता) और इनके प्रत्येक के बाह्य विषयों के रूप में बने रहते हैं, जिन्हें बुद्धि अपना लक्ष्य बनाती है। बुद्धि उसी अनुपात में इन्हें अपना लक्ष्य बनाती है, जिस अनुपात में इन्हें वरण किया जाता है और इनके विरोधी का निरसन किया जाता है। इनका अपना कुछ मूल्य भी है। वस्तुतः
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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