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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/44 व्यावहारिक अनुशीलन की दिशा में ले गई, जहां से उन्होंने प्रारम्भ किया था। हमें यह भी देखना होगा कि प्रज्ञा, सद्गुण एवं सुख तथा इनका मानव-कल्याण से सम्बंध होने के बारे में प्लेटो के विचार क्या हैं। वस्तुतः इन प्रश्नों का उत्तर दे पाना सरल नहीं है। सर्वप्रथम तो हमें यह जान लेना चाहिए कि प्लेटो के समय में दर्शन बाजार-चर्चा का विषय न रहकर व्याख्यान-कक्ष का विषय बन गया था। सुकरात ने मानव जाति के एक ऐसे साधारण-सदस्य के लिए आचरण की सच्ची कला का विकास किया था, जो कि अपने साथियों के साथ एक व्यावहारिक जीवन जीता है, किंतु यदि प्लेटो के अनुसार अमूर्त प्रत्ययों का जगत् ही वास्तविक है और अनेकानेक वस्तुओं का यह विश्व मात्र उसकी प्रतिच्छाया है, तो फिर उच्चतम और सर्वाधिक वास्तविक जीवन, उस प्रथम अमूर्त प्रत्ययों के जगत में ही हो सकता है, इस दूसरे मूर्त जगत् में नहीं। मूर्त वस्तुएं, जिसका अस्पष्ट प्रकाशन है और जिस प्रकार या आदर्श की वे अपूर्ण अनुकृति है, उस अमूर्त सच के चिंतन में ही मनुष्य के सच्चे वैचारिक जीवन की सार्थकता होगी। मनुष्य की वास्तविक मनुष्यता उसके अपने विचारों (मनसा) के अनुरूप ही होती हैं। प्लेटो सुकरात के विचारों का अनुसरण करते हुए यह बताते हैं कि प्रत्येक जीवित प्राणी में अपने शुभ की इच्छा स्थायी और मूलभूत रूप से रही हुई है, जो कि ज्ञान की दार्शनिक उत्कण्ठा के द्वारा अपने उच्चतम रूप में अभिव्यक्त होती है। वे यह भी मानते हैं कि ज्ञान की यह उत्कण्ठा ऐन्द्रिक आवेगों के समान ही किसी ऐसे तथ्य के अभाव की अनुभूति से उत्पन्न होती है, जिसका कभी बोध हुआ हो और जिसकी आत्मा में अव्यक्त स्मृति रही हो। इस उत्कण्ठा की प्रखरता व्यक्ति की दार्शनिक क्षमता के अनुरूप ही होती है। वस्तुतः वैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा किसी अमूर्त सत्य का ज्ञान प्राप्त करने में हम जिसे अभी तक अव्यक्त रूप से जानते थे, उसे अब स्पष्ट रूप में जानने लगते हैं। यद्यपि अपनेपन के कारण आत्मा बाह्य शरीर में कैद है और उसका वास्तविक स्वरूप भावनाओं और आवेगों से युक्त हो गया है, किंतु इस पतन के पूर्व आत्मा सत् और शुभ को साक्षात् रूप से जानता था। ज्ञान की प्राप्ति की इस प्रक्रिया में हम उस अवस्था की सुप्त स्मृतियों को ही पुनः स्पष्ट चेतना में लेते है। इस प्रकार हम प्लेटो के अनेक महत्वपूर्ण संवादों में प्रस्तुत इस विरोधाभास में फंस जाते हैं कि मृत्यु की सच्ची कला ही जीवन की सच्ची कला है, अर्थात् परमशुभ और परम सुन्दर के साथ घनिष्ठ एकात्मता को प्राप्त करने के लिए ऐन्द्रिक जीवन से ऊपर उठना होता है (ऐन्द्रिक जीवन से पूर्णतया ऊपर उठने का अर्थ मृत्यु ही है) दूसरी ओर सामान्य
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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