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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 43 आंशिक रूप से चरितार्थ होता है। यदि अवयवी जगत् के प्रत्येक अंग का सारतत्त्व या सत् अपने विशेष साध्य या शुभ में निहित है, तो सम्पूर्ण सत्ता का मूलाधार विश्व के परम साध्य या विश्वशुभ में ही उपलब्ध होगा। यदि विश्वशुभ ही सम्पूर्ण सत्य का आधार है, तो इस विश्वशुभ का ज्ञान ही मानवीय जीवन का मार्गदर्शक होगा, क्योंकि मनुष्य भी विश्व का ही एक अंग है और स्वयं में एक छोटा-सा विश्व है। उसकी अपनी न तो कोई ऐसी सत्ता है और न कोई ऐसा शुभ हो सकता है, जिसे उसने विश्वशुभ और विश्वसत्ता से प्राप्त नहीं किया हो। इस प्रकार मानवीय शुभ के अध्ययन के सम्बंध में सुकरातीय दर्शन की सीमाओं का उल्लंघन किए बिना ही प्लेटो ने मानवीय शुभ के प्रत्यय का उतनी गहराई तक अनुशीलन किया कि उसकी यह खोज बाह्य जगत के तात्विक स्वरूप के प्रारंभिक अन्वेषण तक चली गई थी, जहां से सुकरात वापस लौट गए थे। सुकरात की भौतिकी में कोई अभिरुचि नहीं थी, फिर भी उन्होंने अपने उच्चकोटि के चिंतन के द्वारा भौतिक विश्व के प्रयोजनमूलक दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया। उनके इस दृष्टिकोण के अनुसार भौतिक विश्व के सभी जंग किसी ईश्वरीय साध्य को चरितार्थ करने के लिए ईश्वरीय प्रज्ञा के द्वारा सुनियोजित किए गए हैं। इस सिद्धांत के प्रस्तुतिकरण में प्लेटो का योगदान यह है कि उन्होंने ईश्वरीय साध्य.का तादात्म्य उस शुभ से कर दिया, जिसका ज्ञान सुकरात के अनुसार मानव जीवन की सभी समस्याओं का समाधान दे देता है। उसने इस ईश्वरीय साध्य को स्वयं ईश्वरीय सत्ता मान लिया था। सम्भवतया धर्म-मीमांसा के साथ आचारमीमांसा को मिला देने के इस प्रयास से प्लेटो परिचित हो चुके थे। युक्लिटस की मान्यता यह थी कि वास्तविक सच एक ही है, जिसे हम शुभ, प्रज्ञा बुद्धि अथवा ईश्वर आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं। प्लेटो ने सुकरात के सुंदर एवं उपयोगी के तादात्म्यीकरण को एक गहन अर्थ प्रदान कर इस सूची में परम् सुंदर का नाम और जोड़ दिया। वे यह बताते हैं कि मनुष्य का सौन्दर्य प्रेम क्रमशः शरीर से आत्मा की ओर, विशेष से सामान्य की ओर अग्रसर होता रहता है और अंत में सम्पूर्ण सत्य एवं जीवन के सारतत्व तथा साध्य के प्रति आत्मा की उत्कण्ठा के रूप में अपने आपको अभिव्यक्त करता है। हमें यह मान ही लेना होगा कि प्लेटो ने विचारों की एक लम्बी छलांग मारी है। उसने नीतिशास्त्र एवं सत्तामीमांसा के चरम प्रत्ययों में तादात्म्य कर दिया है। अब हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि वह कौन-सी अभिव्यक्ति थी, जो उन्हें उस
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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