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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 41 के संबंध में यह कहा गया कि जब भी कोई व्यक्ति सुकरात के उस सारभूत सिद्धांत को सुनिश्चित एवं सुस्पष्ट करने का प्रयास करता है, जो कि शुभ के सम्बंध में प्रचलित विभिन्न विचारों अर्थात् जो सुंदर, सुखद एवं उपयोगी में तादात्म्य करता है, तो वह सुखवाद ही एक सुस्पष्ट निष्कर्ष निकालता है। सम्भवतया प्लेटो ने इस निष्कर्ष को उस वैचारिक प्रक्रिया को पूर्ण करने के पहले ही स्वीकार किया होगा, जिसके द्वारा वे सुकरातीय चिन्तन धारा को मानवीय आचरण की सीमाओं के परे ले जाकर एक व्यापक तत्त्वमीमांसा के रूप में विकसित कर सकें। प्लेटो की इस वैचारिक प्रक्रिया को संक्षेप में इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है। सुकरात का कथन है कि 'यदि हम न्याय क्या है, यह जानते हैं, तो हम न्याय की परिभाषा दे सकते हैं या उसकी सामान्य विवेचना कर सकते हैं, इसलिए न्याय के सम्बंध में वास्तविक ज्ञान उन सामान्य तथ्यों एवं सम्बंधों का ज्ञान है, जो कि उन सभी व्यक्तिशः उदाहरणों मे पाए जाते हैं, जिन पर हम उन सामान्य ज्ञान के प्रयत्न को लागू करते हैं। पुनः यह कथन नैतिक तथ्यों के अतिरिक्त हमारे अनुशीलन एवं विचार-विमर्श के दूसरे तथ्यों के संबंध में भी उतना ही सत्य होगा, क्योंकि विशेष दृष्टांतों के साथ उस सामान्य प्रत्यय के इस संबंध को समग्र भौतिक विश्व पर लागू किया जा सकता है। इन विशेष तथ्यों के संबंध में विचारविमर्श केवल उन सामान्य तथ्यों के माध्यम से ही कर सकते हैं, जिन्हें जाना भी जा सकता है। किसी प्रत्यय का सच्चा वैज्ञानिक ज्ञान सामान्य ज्ञान ही होगा, जो प्राथमिक रूप से विशेषों से संबंधित न होकर दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत उन विशेषों के सामान्य गुणों तथा तथ्यों से संबंधित होगा। वस्तुतः जब किसी विशेष प्रत्यय का विश्लेषण करते हैं, तो उसे सामान्य गुणों का एक योग ही पाते हैं। हमारे प्रामाणिक ज्ञान का विषय वही हो सकता है, जो कि वस्तुतः सत्तावान है और इसलिए विश्व की सत्यता सामान्य तथ्यों या संबंधो में रही हुई है, न की उन विशेषों में, जो कि सामान्य के दृष्टान्त (अभिव्यक्तियां) मात्र हैं। यहां तक तो प्रस्तुतिकरण की यह प्रक्रिया काफी सरल है, किंतु आगे यह समझ पाना कठिन होता है कि यह तार्किक वस्तुवाद इस प्रकार उस सारभूत नैतिक लक्षण को ग्रहण कर लेता है, जो कि हमारी अभिरुचि का मुख्य विषय है । यद्यपि प्लेटो का दर्शन संपूर्ण सत्तावान् विश्व से सम्बंधित है, तथापि उसके दार्शनिक अनुशीलन का चरम - लक्ष्य तो 'शुभ' ही है। उसके
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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