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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/36 आचरण को पूर्ण बना देगा। यहां ज्ञान से तात्पर्य मुख्य रूप से चरम एवं सारभूत शुभ के ज्ञान से है और गौण रूप से उन सभी वस्तुओं एवं साधनों के ज्ञान से है, जो सापेक्षिक रूप से शुभ है और जिनके द्वारा मनुष्य को उस परम शुभ की प्राप्ति होती है। (2) असंगतिपूर्ण एवं जटिलताओं से युक्त शुभ और अशुभ की जन साधारण की मान्यताओं के प्रति अंतरिम निष्ठा और उन मान्यताओं के विभिन्न लक्ष्यों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की अविरत तत्परता। इसके साथ ही आत्महित के प्रमाणक के आधार पर दुर्गुणों की अपेक्षा सद्गुणों की श्रेष्ठता का प्रदर्शन। (3) व्यावहारिक धारणाओं के संगतिपूर्ण परिपालन में बाह्य रूप से सहज, किंतु वस्तुतः अपराजित वैयक्तिक दृढ़ता, जिसे उन्होंने अपने जीवन में प्राप्त कर लिया था। जब हम इन सब तथ्यों के प्रकाश में उन्हें देखेंगे, तो यह समझ सकेंगे कि किस प्रकार सुकरात के संवादों से ग्रीक नैतिक चिंतन की विभिन्न विचारधाराओं का उद्भव हुआ। सुकरातीय सम्प्रदाय चार विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदाय अर्थात् मेगेरियन, प्लेटोवादी; सिनिक एवं सिरेनेक सीधे-सीधे अपनी उत्पत्ति का निकटतम मूलकेंद्र सुकरातीय विचारधारा को मानते हैं। यद्यपि इनमें एक को दूसरे से पृथक् करने वाले वैचारिक मतभेद पाए जाते हैं, तथापि उन सभी पर अपने गुरु का प्रभाव परिलक्षित होता है। वे सभी इस सम्बंध में एकमत हैं कि मनुष्य की सबसे महत्वपूर्ण सम्पदा प्रज्ञा (विवेक) या ज्ञान है और ज्ञान में शुभ का ज्ञान ही सर्वोपरि है, किंतु यहीं उनकी समानता समाप्त हो जाती है। सुकरातीय विचारधारा के महत्वपूर्ण दार्शनिक पक्षों से विचारकों का जो वर्ग निर्मित हुआ, उनमें मेगरा के यूक्लिडस अग्रगण्य हैं। उन्होंने शुभ को अपरितोषीय अन्वेषण का विषय माना और नए सिरे से उसकी रहस्यात्मकता की गम्भीरतापूर्वक खोज प्रारम्भ की। शुभ की रहस्यात्मकता की इस खोज ने उसका तादात्म्य दृष्टिकोणों के रहस्यों के साथ कर दिया और इस प्रकार शुभ का अन्वेषण नीतिशास्त्र के क्षेत्र का अतिक्रमण कर तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में चला गया, किंतु जिन विचारकों की ज्ञान पिपासा सहज रूप में संतुष्ट हो चुकी थी और जो अपने गुरु की शिक्षाओं के रचनात्मक एवं व्यावहारिक पक्ष से प्रभावित थे, उन्होंने शुभ के अनुशीलन को एक सरल कार्य ही माना। वस्तुतः उन्होंने शुभ को एक ज्ञात तथ्य मान लिया था और वे शुभ के इस ज्ञान को दृढता के साथ आचरण के रूप में क्रियान्वित करने को ही दार्शनिक जीवन का मुख्य लक्ष्य मानते थे। इन विचारकों में सिनिक ऐन्टिस्थेनीज और सिरेनेक एरिस्टपस
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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