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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/297 अंतःप्रज्ञाएं तर्क का परिणाम नहीं हैं, अपितु अपरोक्षानुभूति और प्रत्यक्षीकरण के रूप में होती हैं, लेकिन ये उस अर्थ में अंतःप्रज्ञाएं नहीं, जिस अर्थ में पाण्डित्यवादी या अंतःप्रज्ञावादी-सम्प्रदाय के आधुनिक नीतिवेत्ता उन्हें समझते हैं, क्योंकि ये न तो सामान्य कथन हैं और न उनसे नियम के द्वारा दूसरी नैतिक-शक्तियों को ही प्राप्त किया जा सकता है, साथ ही, ये अभ्रांत सत्य होने का दावा नहीं कर सकते हैं। दूसरे प्रकार के निर्णयों के समान ही नैतिक-निर्णयों में भी गलती की सम्भावना है, किंतु इस गलती को पुनः प्रत्यक्षीकरण और तुलना के द्वारा खोजा जा सकता है तथा उसे सुधारा जा सकता है। सारले की यह पद्धति भी ऐन्द्रिक-प्रत्यक्षीकरण के आधार पर प्राकृतिकविज्ञानों के विकास के समान ही है। नैतिक-मूल्यों के कुछ विशिष्ट लक्षण हैं, उनका आंतरिक-जीवन से सदैव ही कुछ सम्बंध रहता है और उन्हें आंतरिक-प्रयोजन और प्रेरक से अलग नहीं किया जा सकता। उन मूल्यों में साध्य और साधन के बीच कुछ अंतर अवश्य रहता है। चरम नैतिक-मूल्य अनिवार्यतया आंतरिक हैं, यद्यपि साध्य और साधन का यह अंतर निश्चित नहीं है, अनुभव बताता है कि साध्य और साधन एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं और एक-दूसरे से पृथक् होकर किसी एक में कोई भी मूल्य निहित नहीं है। यह हो सकता है कि उनमें से प्रत्येक का अपने-आप में मूल्य हो, लेकिन उनकी समष्टि (इकाई) में जो मूल्य अनुभूत होता है, वह उस समष्टि के अंगों के अलग-अलग मूल्यों के योग से भी अधिक होता है। स्वतः मूल्य के और उस प्रक्रिया के, जिसके द्वारा किसी व्यक्ति को मूल्य की चेतना होती है, अंतर के बारे में एक अस्पष्टता है, जो कि विचारणीय है। नैतिक-निर्णय जिस सत्यता का दावा करते हैं, उसमें यह शुभ है, वह अशुभ है, ऐसी स्वीकृति निहित है, किंतु यह स्वीकृति किसी इच्छा या घृणा अथवा पसंदगी या नापसंदगी की भावना के अस्तित्व की अवस्था नहीं है। यह मन की वैयक्तिक या आत्मनिष्ठ मूल्य की उपस्थिति को सूचित करती है। नैतिक-मूल्यों की सत्यता किसी एक के लिए नहीं, अपितु सबके लिए है। दो परस्पर विधेयी नैतिक-निर्णय एक साथ सत्य नहीं हो सकते। व्याघातकता से रहित होना, आत्मगत संगति से युक्त होना और इस प्रकार एक सम्भावित क्रमबद्धता का होना ही वह कसौटी है, जिसके द्वारा किसी भी नैतिक-निर्णय की सत्यता की परीक्षा की जा सकती है। यहां एक सावधानीपूर्ण विश्लेषण की आवश्यकता है, क्योंकि दो नैतिक-निर्णय अभिव्यक्ति की दृष्टि से एक-दूसरे के व्याघातक होते हुए भी
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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