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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/256 बिना ही होती है। स्वयं हाव्स भी यह मानता है कि उपलब्धि सुख के बिना ही होती है। स्वयं हाव्स का भी कथन है कि उपलब्धि के विचार के अभाव में क्षुधा निराशा ही है, सुख नहीं। इसलिए मैंने इस ग्रंथ में इच्छा और सुख के तादात्म्य को छोड़ देने की एक सुस्पष्ट भूल की है, लेकिन हाव्स का बल इस बात पर है कि सुख में इच्छा निहित है। यह हमें ध्यान में रखना चाहिए, जैसा कि उसके आनंद या सुख के विवेचन में प्रतीत होता है। वह बताता है कि सुख मन की संतुष्ट अवस्था में निहित है, जिसे हम परोपकार भी कहते हैं। जब हम मनुष्य की गौरवपूर्ण सामाजिक अभिरुचियों पर संकुचित रूप से विचार करते हैं, तो उनका दूसरे लोगों से व्यक्तिगत लाभ उठाने की इच्छा में या प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा में समावेश हो जाता है। 6. यहां हाव्स के उन साध्यों के सिद्धांतों में, जिन्हें मनुष्य प्राप्त करता है और उनके प्राकृतिक अधिकारों का निर्धारण करने के उसके प्रमाणक में एक असंगति दिखाई देती है, यद्यपि सम्भवतः यह अचेतन ही हो। यह प्रमाणक कभी भी केवल सुख नहीं है, अपितु सदैव ही सुरक्षा की भावना है, तथापि वह एक स्थान पर बचाव (सुरक्षा) के इस प्रत्यय को जीवन की सुरक्षा के रूप में विकसित करता है, ताकि कोई भी इस सम्बंध में निरुत्साहित नहीं हो। यहां उसका दृष्टिकोण यह प्रतीत होता है कि प्राकृतिक अवस्था में अधिकांश मनुष्यों को मात्र सुख या प्रतिष्ठा के लिए लड़ना, लूटना आदि करना पड़ता था और इसलिए सभी मनुष्यों को सुरक्षा (बचाव) के लिए लड़ने, लूटने आदि का असीम अधिकार दिया जाना चाहिए। 7. यह स्पष्ट है कि हाव्स इस सिद्धांत को गास्पे के सुप्रसिद्ध स्वर्णिम नियम से भिन्न नहीं बताता है, तुलना कीजिए - लेव्हीथान, अध्याय 15, पृष्ठ 79 तथा अध्याय 17, पृष्ठ 85, तथापि उपरोक्त सिद्धांत विधायक सेवा के स्थान पर संयम या त्याग का विधान कर स्वर्णिम नियम का निषेधात्मक रूप में उपयोग करता है। सम्भवतः यह अधिक ध्यान देने योग्य है पफफेन्डोफ ने हाव्स को उद्धृत करते समय इन दो सिद्धांतों के बीच के अंतर को देखने का प्रयास नहीं किया है। 8. हाव्स 'प्राकृतिक नियम' के पद को व्यापक नैतिक अर्थ में ग्रहण करता है। वह स्पष्ट रूप से यह मानता है कि जो वस्तुएं किसी विशेष व्यक्ति को विनाश की दिशा में ले जाती हैं, जैसे मद्यपान या असंयम के विभिन्न प्रकार, वे उन वस्तुओं में हैं, जिनका प्रकृति के नियम ने निषेध किया है, किंतु उसका सम्बंध केवल उन नियमों की व्याख्या से है, जो सामाजिक आचरण का नियमन करते हैं और भीड़ में मनुष्य की
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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