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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/225 वैयक्तिक-सुख का सामान्य सुख (सामाजिक सुख) से क्या सम्बंध है, इसे उन सब बातों से, जिन पर हम विचार कर रहे हैं, सावधानीपूर्वक अलग कर लेना चाहिए। यह मान लेने पर कि सामान्य सुख की अभिवृद्धि नैतिकता का परम साध्य है, नीतिवेत्ताओं और नैतिक-शिक्षकों को कहां तक व्यक्ति के कार्यों में परोपकार को एक प्रमुख चेतनप्रेरक-तत्त्व बनाने में प्रयास करना चाहिए? कहां तक उसमें इन सामाजिकआवेगों का विकास करना चाहिए, जिनका सीधा सम्बंध साधारणतया स्वार्थवादी कहे जाने वाले आवेगों का विनाश कर दूसरों के सुखों की अभिवृद्धि करने से है। स्वार्थवादी-आवेगों से हमारा तात्पर्य उन आवेगों से हैं, जिनका उद्देश्य दूसरों के सुखों से मिलने वाले वैयक्तिक-संतोष से भिन्न प्रकार का संतोष है। इस प्रश्न पर बेंथम का दृष्टिकोण विशेष रूप से इस कथन में अभिव्यक्त होता है कि भोजन के लिए अन्य कुछ नहीं केवल आत्म-विश्वास ही कार्य करेगा। यद्यपि एक इच्छा के लिए परोपकार एक बहुत ही मूल्यवान् विषय है। यद्यपि वास्तव में उससे असहमत होते हुए भी कोम्ते के प्रभाव के कारण मिल की शिक्षा व्यावहारिक-स्वार्थ और परार्थ के बीच संतुलन को भिन्न रूप से और अधिक अच्छे ढंग से बनाती है। एक ओर मिल यह मानता है कि निष्काम लोक-सेवा की भावना सभी उपयोगी सामाजिक-कार्यों के करने में एक प्रमुख प्रेरक होना चाहिए और अपने स्वास्थ्य आदि का ध्यान भी विवेक के आधार पर नहीं, किंतु केवल इसलिए रखना चाहिए कि यदि हम अपना स्वास्थ्य खो देंगे, तो हम अपने साथियों की सेवा करने में असमर्थ हो जाएंगे। दूसरी ओर, वह यह मानता है कि मोनो में जीवन इतना उच्च नहीं हो पाता है कि वह इन सभी से इंकार करने में समर्थ हो सके, जो व्यक्तियों को (तथाकथित) स्वार्थी-प्रवृत्तियों से सम्बंधित करता है और यह कि नैतिक प्रशंसा से भिन्न नैतिक-निंदा को दूसरों को नुकसान पहुंचाने वाले या दूसरे लोगों के स्वयं के सुख के प्रयत्नों में बाधा डालने वाले या कर्ता के द्वारा व्यक्त या अव्यक्त रूप से की गई प्रतिज्ञाओं को तोड़ने वाले कार्यों तक सीमित रखना चाहिए। इसके साथ ही, वह अव्यक्त प्रतिज्ञा के प्रत्यय को इतना व्यापक बना देता है कि उसमें उन सभी शुभ कार्यों और निष्काम सेवाओं को समाहित किया जा सकता है, जो कि मानव-जाति के नैतिक-विकास के लिए प्रचलित रही हैं। इस प्रकार, वह अव्यक्त प्रतिज्ञा के व्यापक प्रत्यय के एक ऐसे प्रमापक को स्थापित करता है, जो कि एक विकासशील समाज में सतत रूप से अधिक यथार्थता के साथ विकसित होता रहेगा। इस सिद्धांत से यह निष्कर्ष निकलता है कि न्यायसंगत आलोचना
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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