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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/206 प्रथम का ज्ञान केवल दूसरे का ही विशेष वर्ग है। क्योंकि किसी में पुण्य (अच्छाई) का दर्शन करने का अर्थ, यह देखना है कि वह कार्य पुरस्कार के योग्य है। रीड के समान ही वह भी यह बताने में सजग है कि कर्ता की अच्छाई पूर्णतया प्रयोजन पर या कर्म की आकारिक उचितता पर निर्भर है। एक व्यक्ति, जब तक उसका प्रयोजन बुरा नहीं है, निंदा का पात्र नहीं है। यद्यपि जानबूझकर की गई उस असावधानी के लिए उसकी आलोचना की जा सकती है, जिसमें उसने अपने वास्तविक कर्तव्य के प्रति अज्ञानता उत्पन्न की है। जब हम सद्गुण की विषयवस्तु की ओर आते हैं, तो यह पाते हैं कि प्राइस निश्चय ही मर और क्लार्क की अपेक्षा प्राथमिक नैतिक सिद्धांतों की स्वीकृति एवं उनकी विवेचना के प्रति लापरवाह है। मुख्यतया वह सेफ्ट्सबरी और हचीसन के दृष्टिकोण के उस नवीन विरोध के प्रसंग में लापरवाह है, जिसके कारण उसकी विरोधात्मक स्थिति अधिक जटिल बन गई है। प्राइस विशेषतया जिसे स्पष्ट करना चाहता है, वह यह है कि सार्वलौकिक परोपकार के सिद्धांत के अतिरिक्त भी कुछ परम नैतिक सिद्धांतों को अपना अस्तित्त्व है। वह इस दूसरे सिद्धांत के लिए या बौद्धिक आत्म प्रेम के सिद्धांत के लिए नैतिक आबंधों का निरसन करना नहीं चाहता है। इसके विपरीत, वह दोनों की ही स्वतः प्रामाणिकता को सिद्ध करने का प्रयास करता है। वह कहता है कि सुख, चाहे वे अपने स्वयं के हों या दूसरों के हो, उनकी अभिवृद्धि एवं उनका अनुसरण करना उचित है, इससे बढ़कर और कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसका हमें अधिक असंदिग्ध रूप से सहज-ज्ञान (आंतरिक प्रत्यक्षी-करण) होता है, किंतु वह बटलर से इस बात में सहमत है कि निष्ठा, सत्यता, वचनों का पालन और न्याय अपनी सुख की संवर्द्धकता से स्वतंत्र होकर भी आबंधात्मक हैं । बटलर के द्वारा उपेक्षित अन्तःप्रज्ञा से ज्ञात सुस्पष्ट सत्यों की निकाय के आधार पर इन कर्त्तव्यों की हमारी सामान्य नैतिक चेतना के क्रियान्वयन के इस कार्य में जुटने के लिए, वह नैतिक प्रामाणिकता के निर्णायक के रूप में बुद्धि की अपेक्षा सहज-बोध का समर्थन करने से कठिनाई में पड़ गया। इस प्रकार सत्यवादी होने की आबंधकता को मान्य रखने में यह स्पष्टतया सत्य ही बोलना चाहिए इस निरपेक्ष बंधन की स्वतः प्रामाणिकता को सिद्ध नहीं कर पाता है, वरन् सामान्य नैतिक धारणा के आगमिक संदर्भ के द्वारा वह यह कहेगा कि हम इस कथन से इंकार नहीं कर सकते हैं कि सच्चाई में एक आंतरिक औचित्य है। इस प्रकार न्याय के इस विवेचन में वह कहता है कि न्याय सद्गुण का वह
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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