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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 205
अधिक दृष्टिकोण-भेद एवं पद्धति-भेद के साथ पेले और बेंथम के द्वारा नीतिशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में स्वतंत्र एवं समान्तर रूप से उपयोग किया गया। यही विचार - पद्धति वर्त्तमान युग में उपयोगितावाद के नाम से प्रचलित है।
परवर्ती सहज ज्ञानवाद
प्राइस (1723 - 1791 )
एडमस्मिथ के ग्रंथ के प्रकाशित होने के दो वर्ष पूर्व ही सन् 1757 ई. में प्राइस का ग्रंथ रिव्यू ऑफ चीफ क्यूशनस एण्ड डिफरेंस ऑफ मोरहब्स प्रकाशित हो गया था। प्राइस ने सत्य के सहज ज्ञान या बुद्धि के द्वारा वस्तुओं के स्वरूप के अपरोक्ष ज्ञान से नैतिक - प्रत्ययों की उत्पत्ति के कडवर्थ और क्लार्क के सिद्धांतों का पुनरोद्धार ऐसे कुछ प्रकारान्तरों के साथ किया है, जिनकी व्याख्या हमें नैतिक-चिंतन के उस मध्यवर्ती विकास से मिलती है, जिस पर हम विचार कर चुके हैं। प्रथमतः, प्राइस की मान्यता यह है कि उचित और अनुचित ऐसे एकल प्रत्यय हैं, जो परिभाषा या विश्लेषण के योग्य नहीं हैं। उचित, ठीक चाहिए, कर्त्तव्य एवं नैतिक - आबंध के प्रत्यय सम्पाती हैं या उनसे तादात्म्य है। यह कम-से-कम उन संदेशों को दूर कर देता है, जिनके कारण क्लार्क और बोलस्टन नैतिक- गणितीय एवं भौतिक सत्यों की तुलना के शिकार हुए थे। दूसरे, नैतिक चेतना के उस सांवेगिक पक्ष को, जिस पर शेफ्ट्सबरी और उसके अनुयायियों ने अपना ध्यान केंद्रित किया था, अब स्पष्ट रूप से बौद्धिक-अंतः प्रज्ञा (अंतर्विवेक) का सहचारी स्वीकार किया, यद्यपि वह वस्तुतः उसके अधीन है। प्राइस के दृष्टिकोण में उचित और अनुचित कार्यों के वस्तुगत गुण हैं, जबकि नैतिक - सौंदर्य और असौंदर्य आत्मनिष्ठ प्रत्यय हैं। ये उन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो कि आंशिक रूप से बौद्धिक- प्राणियों में उचित और अनुचित के प्रत्यक्षीकरण का अनिवार्य परिणाम है और आंशिक रूप से विकसित बोध या परिवर्तनशील सांवेगिकभावुकता के कारण है। इस प्रकार, बुद्धि और नैतिक- इंद्रिय या मूल प्रवृत्ति दोनों ही सद्गुणात्मक आचरण के आवेगों के प्रति सहयोगी है। यद्यपि बौद्धिक तत्त्व प्राथमिक एवं सर्वोच्च है, प्राइस कर्त्ता में पाप और पुण्य के प्रत्यक्षीकरण से उसके सहगामी व्यक्ति के कृत्यों के औचित्य और अनौचित्य के प्रत्यक्षीकरण का स्पष्ट अंतर करने में यद्यपि बटलर का अनुसरण करता है ।
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