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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/204 गया वह केवल एक या दो स्थानों पर ही मनोविज्ञान से नैतिकता के वास्तविक विभेद पर आभासी रूप से ही बल दे पाया है, किंतु इसकी निकटतम समीक्षा यही बताती है कि ह्यूम इसे पसंदगी और नापसंदगी के वास्तविक अस्तित्व से अधिक कुछ नहीं समझता है, वह पसंदगी या नापसंदगी, जिसका मनुष्य एक-दूसरे के गुणों के सम्बंध में अनुभव करते हैं। तथ्य यह है कि सेफ ट्सबरी से प्रारंभ होकर नैतिक-चिंतन की दिशा में प्रमुख बने भावों के विवेचन एवं विश्लेषण के मध्य उचित क्या है और क्यों है? ये मुख्य प्रश्न नैतिकता के प्रति स्पष्ट खतरे को जाने बिना ही परिपार्श्व में जाकर समाप्त से हो गए। यदि हम यह मानते हैं कि पसंदगी और नापसंदगी का बोध प्रत्येक व्यक्ति में अपनी रुचि के अनुसार स्वाभाविक रूप से भिन्न-भिन्न होगा, ऐसी स्थिति में नैतिकनियमों की आबंधात्मक शक्ति लुप्त हो जाएगी। वस्तुतः, यह ह्यूम के उस सिद्धांत को प्रतिपादित करने का दूसरा तरीका है, जिसमें कार्यों के लक्ष्य से बुद्धि का कोई सम्बंध नहीं है, किंतु यह कहना होगा कि एक स्थाई भाव की उपस्थिति अपने-आप में नैतिकता के पालन का कोई पर्याप्त कारण नहीं है। नीतिशास्त्र का मनोविज्ञान में विलय करने की इस प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया किसी न किसी रूप में अपरिहार्य थी। यह सुस्पष्ट था कि यह प्रतिक्रिया निम्नलिखित विचारधाराओं की किन्हीं दो दिशाओं में से कोई एक दिशा ग्रहण करती। एक दिशा क्लार्क और कम्बर-लैण्ड की विचारधारा से अविरोध-भाव से सम्बंधित होने में थी और दूसरी बटलर और हचीसन की उस विचारधारा से सम्बंधित होने में थी, जो कि स्पष्ट रूप से इस विलय की विरोधी हो चुकी थी। यह प्रतिक्रिया या तो नैतिक-सिद्धांतों की सामान्य स्वीकृति की ओर एवं उनकी वस्तुगत सत्यता को मान्य करने की दिशा में लौट सकती थी और उन्हें परम नैतिक-सत्यों के एक पूर्ण एवं संगतियुक्त प्रारूप के रूप में दिखाने का प्रयास कर सकती थी, अथवा ह्यूम के द्वारा उल्लेखित नैतिक स्थायीभावों की उत्पत्ति के लिए सुख की प्रेरकता या उपयोगिता को एक ऐसा अंतिम प्रमापक मान सकती थी, जिसके द्वारा स्थायीभावों को मापा जा सकता है या सुधारा जा सकता है। पहली दिशा को तात्त्विक-सहमति के साथ प्राइस, रीड, स्टेवार्ट और सहजज्ञानवादी दूसरे विचारकों के द्वारा स्वीकार किया गया, जबकि दूसरी दिशा का अपेक्षा से
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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