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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 202 सहानुभूति, दया और नैतिक-बोध के सिद्धांतों के अधीन हों। जहां तक कि धर्म और नैतिकता के पक्ष में तर्कों का प्रश्न है, वे स्पष्टतया स्वहित के आधार पर ही प्रतीत होते हैं, किंतु इसके आगे हार्टले यह भी मानता है, कि बौद्धिक- स्वहित को ही अपने लक्ष्य का प्राथमिक-विषय मानने पर भी वह लक्ष्य ईश्वर एवं पड़ोसी के प्रति प्रेम के उच्चतम सुख को निरूत्साहित एवं समाप्त ही करेगा। मानव के विकास में उसका मुख्य कार्य तो हमें परोपकार, दया और नैतिक बोध की अभिवृद्धि उत्पन्न करने हेतु प्रवृत्त करना है। तदनुसार, हमारा आदर्श लक्ष्य स्वहितों की इस दासता को आगे और आगे ही बढ़ाते जाना है, जहां तक कि हम अहं का पूर्ण विसर्जन कर और विशुद्ध प्रेम तक नहीं पहुंच जाते हैं, यद्यपि इसे इस जीवन में प्राप्त कर लेना असम्भव - सा है, ताकि बौद्धिक-आत्मप्रेम स्वयं का विसर्जन करके अपनी पूर्णतम आत्मसंतुष्टि को प्राप्त कर सके। सहानुभूति, समाधि और नैतिक-बोध के सुखों के लिए निम्न श्रेणी के सुखों से भिन्न रूप में बिना पारस्परिक संघर्ष और बिना अति के भय के प्रयास किया जा सकता है। दया और बौद्धिक परोपकार परस्पर एक दूसरे के सहयोगी हैं। एक पूर्ण परोपकारी मनुष्य की यही इच्छा होगी कि वह अनंत सार्वलौकिक-परोपकार को कर सके। दूसरी ओर, परोपकार कभी भी तब तक पक्षपात और स्वार्थपरायणता से मुक्त नहीं हो सकता, जब तक कि हम अपने को ईश्वरीय - प्रकृति में स्थित न कर लें और प्रत्येक वस्तु को केवल उसी ईश्वरीय - प्रकृति की दृष्टि से न देखें। पुनश्च, सहानुभूतिजन्य सुख उस नैतिक-बोध के द्वारा पूर्णतया अनुमोदित एवं पुष्ट होते हैं, जिसके कि वे एक प्रमुख स्रोत हैं। हार्टले का व्यावहारिक - सिद्धांत स्थूल रूप से शेफ्ट्सबरी और हचीसन के साथ संगति रखता है और वह स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि परोपकार ही प्राथमिक लक्ष्य है। अपने सिद्धांत में वह यह भी मानता है कि हमें प्रत्येक कार्य इस तरह करना चाहिए कि उससे हम हमारी शक्ति पर कमसे-कम दुःख और अधिक सुख उत्पन्न कर सकें। यही सामाजिक व्यवहार का नियम है, जिसे सार्वलौकिक असीम परोपकार हमारे मन में उत्पन्न करता है। इस नियम की निस्संकोच स्वीकृति परवर्ती उपयोगितावाद का विरोध तो नहीं करती है, किंतु परवर्ती उपयोगितावाद के पूर्व कल्पना से हार्टले बहुत दूर है। वह यह मानता है कि हमारे कार्यों के परिणामों की गणना में आने वाली कठिनाइयों और उलझनों के कारण बहुधा हम इस सामान्य नियम के स्थान
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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