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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/201 और प्रत्ययों से एक रूप हो जाते हैं। सुख और दुःखों के छह वर्गों में से प्रत्येक वर्ग, जिसे सूची में अनुक्रम से दिया गया है, वह अपने पूर्ववर्ती की अपेक्षा अधिक जटिल है। इसका कारण परवर्ती वर्गों की मिश्रित प्रक्रिया है। तदनुसार, नैतिक-बोध का सुख अंतिम होने के कारण सबसे अधिक जटिल है। अपने विकास की प्राथमिक अवस्था में वे मुख्यतया उस पसंदगी और नापसंदगी की भाषा के साहचर्य से निर्मित होते हैं, जिसे बच्चे क्रमशः सद्गुणी व्यक्ति के प्रसंग में सुनते हैं। व्यक्ति स्वयं के सद्गुणों या दूसरों के सद्गुणों से उपलब्ध (नीतिविहीन) संतुष्टियों के चिह्नों को क्रमशः मिश्रित करता है। सामाजिकता और परोपकार के विचार जब विकसित हो जाते हैं, तो वे भी इसमें अपना योगदान भी करते हैं, उससे अगला योगदान सभी सद्गुणों की पारस्परिकसंगति एवं उनकी विश्व की सौंदर्य व्यवस्था और पूर्णता के साथ संगति से उत्पन्न सौंदर्यात्मक संतुष्टि के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। पुनश्च, कर्त्तव्य के निष्पादन के पश्चात् मिलने वाले पुरस्कार की सतत् आशा के द्वारा आदर्श सुख स्वयं को कर्तव्य के प्रत्यय के साथ सम्बंधित करने की प्रवृत्ति रखता है। यह भी इन आशाओं के प्रति बिना किसी अभिव्यक्त स्मृति के अंत में धार्मिक संवेग मिश्रित सामान्य सुखद विचार और चेतना के साथ एक अन्य तत्त्व को जोड़ देते हैं। यह तत्त्व हममें तब उत्पन्न होता है, जबकि हम अपने सद्गुणात्मक अभिरुचियों (अनुरागों) एवं कार्यों पर विचार करते हैं। इसी प्रकार, दुःखों का मिश्रण अपराध और पश्चाताप का बोध उत्पन्न करता है, वह भी तब उत्पन्न होता है, जबकि हम स्वयं अपनी बुराइयों पर विचार करते हैं। हार्टले का वह संवेदनावाद उसे दैहिक-सुखों से बहुत दूर ले जाता है। वस्तुतः, उसकी दृष्टि में तथ्य यह है कि दैहिक-सुख उन शेष सभी का आधार है, जिसके द्वारा उनकी निम्नता के तर्क को प्रस्तुत किया गया है, क्योंकि प्रकृति की व्यवस्था में पूर्ववर्ती अपने परवर्ती की अपेक्षा हमेशा आधारभूत और अपूर्ण होता है। इसी प्रकार, कल्पनाजन्य सुखों की निम्नता का बोध प्रकृति के सौंदर्य, कला तथा विज्ञान के द्वारा होता है। उनकी निम्नता के तर्क का आधार यह है कि वे हमारे बौद्धिक-सुखों से भी सामान्यतया प्रथम है और उच्चतम प्रकार के सुखों की उत्पत्ति एवं बुद्धि के लिए स्पष्ट रूप से प्रवृत्त होते हैं। अंततोगत्वा हार्टले यह निष्कर्ष निकालता है कि अपने अधिकतम सुखों को चाहने वाला कोई भी व्यक्ति एन्द्रिक- सुखों अथवा कल्पित या अकल्पित सुखों को सर्वोपरि विषय नहीं बनाना चाहेगा। इन निम्न सुखों की अधिकतम मात्रा तभी उपलब्ध की जा सकती है, जबकि इनकी प्राप्ति के प्रयास
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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