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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/198 अभी तक हम दूसरों के आचरण और स्थाईभावों के संदर्भ में ही हमारे नैतिक निर्णयों के मूल स्रोत एवं आधार के बारे में विचार कर रहे थे। यद्यपि जब ऐसे ही निर्णय हमारे स्वयं के आचरण के सम्बंध में देना होते हैं, तो पुनः उनके मूल घटक की जटिलता को समझने के लिए उनकी व्याख्या अपेक्षित होती है। अंतर्विवेक की इस प्रक्रिया में हम अपने-आप को दो व्यक्तियों में विभाजित कर लेते हैं और हमारे आचरण को देखने वाले उस कल्पित दृष्टा की भावनाओं में प्रवेश करने का प्रयत्न करते हैं। वास्तविक दर्शक (अर्थात् दूसरे व्यक्ति) हमारे कार्यों और प्रेरकों के अपूर्ण ज्ञान के कारण गलत प्रशंसा या निंदा के दोषी हो सकते हैं, किंतु गलती से दिए गए सम्मान और प्रशंसा से हमें बहुत ही अपूर्ण एवं बनावटी संतोष मिल पाता है और जब इन्हें उस गलती से रोक दिया जाता है, तो हमें (उस) काल्पनिक वास्तविक ज्ञाता और तटस्थ दर्शक की अनुशंसा से एक वास्तविक सुख प्राप्त होता है। इस प्रकार, हमारी प्रशंसा पाने की इच्छा से अलग, प्रशंसनीय होने की इच्छा का विकास होता है और इसी प्रकार निंदा की आशंका से अलग, निंदनीय होने की आशंका का विकास होता है। यद्यपि यह ध्यान देने योग्य है कि गलत प्रशंसा से संतोष प्राप्त करने की अपेक्षा गलत निंदा से उत्तेजित होने की क्षमता हममें सामान्यतया अधिक है, क्योंकि आंशिक रूप से हम यह जानते हैं कि अपराध की स्पष्ट स्वीकृति गलत प्रशंसा को समाप्त कर सकती है, किंतु गलत निंदा से बचने के लिए यह रास्ता नहीं है। तदनुसार इस दूसरी स्थिति में आदर्श दृष्टा अंतरात्मा कभी बहिरात्मा के विरोध एवं अपमान के कारण भौचक्का एवं हतप्रभ हो जाता है। दूसरी ओर, यह भी मान लेना होगा कि अंतरात्मा वास्तविक दर्शकों की उपस्थिति के कारण प्रायः अपने कर्तव्य के प्रति मन से सजग रहने की अपेक्षा करता है। अब जब वास्तविक दर्शक पक्षपाती और आसक्ति से युक्त होते हैं तथा निष्पक्ष-दृष्टा उदासीन होते हैं, तो नैतिक स्थाई भावों का औचित्य भी दूषित हो जाता है, इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय-नैतिकता और दलीय-संघर्ष जैसी नैतिकता की निम्न अवस्था की तुलना साधारण व्यक्तिगत-नैतिकता से की जाती है। पुनश्च, अंतरात्मा की सूचना प्रतिष्ठा एवं वासना के आंतरिक-प्रभाव और उसके साथ ही बहिरात्मा के विचारों के द्वारा सत्य से दूषित होने की सम्भावना भी हो सकती है, किंतु ऐसी आत्मवंचना से बचने के लिए एक
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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