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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/194 अधिक स्पष्ट नहीं है। यह ध्यान देने योग्य है कि अपने प्रारम्भिक ग्रंथों में वह उस शांत एवं स्थाई सार्वलौकिक शुभ संकल्प की जन सामान्य में उपस्थिति को अस्वीकार करता है, जिसे हचीसन ने सामान्यतया नैतिकता का सर्वोच्च प्रेरक माना था। सामान्यतया यह माना जा सकता है कि वैयक्तिक गुणों, सेवाओं अथवा सम्बंधों से स्वतंत्र मानवता के प्रति प्रेम की ऐसी कोई भावना (आवेग) मानव मस्तिष्क में नहीं है, न ही उस सुख के प्रति सहानुभूति है, जिसे उसका परोपकारी संवेग प्रदान करता है', इसलिए लोकोपकार (जनकल्याण) या मानव जाति के हितों का सम्मान न्याय का मौलिक प्रेरक नहीं हो सकता। अपने परवर्ती ग्रंथों में भी वह अपने इस दृष्टिकोण को स्पष्टतया वापस नहीं लेता है, किंतु वह यह कहता है कि नैतिक अनुमोदन (पसंदगी) मानवता और परोपकार से निगमित है। बटलर के पश्चात् वह स्पष्टतया यह स्वीकार कर लेता है कि हमारे परोपकारी आवेगों में एक तटस्थ तत्व निहित है (जैसे कि भूख, प्यास, प्रतिष्ठा, प्रेम आदि दूसरे आवेगों में होता है), दूसरी ओर वह इस बात पर भी विचार नहीं करता है कि क्या नैतिक भावनाएं या रुचियां किसी कार्य की प्रेरक हो सकती हैं? सिवाय इसके कि वे सुख या दुःख देती हैं और किसी प्रकार से आनंद या संकट की निर्माता हैं, यद्यपि इन दृष्टिकोणों की संगति बैठाना कठिन है, किंतु किसी भी कीमत पर ह्यूम पूरी तरह यह मानता है कि बुद्धि किसी कर्म की प्रेरक नहीं है, सिवाय इसके कि यह क्षुधाओं या रुचियों से प्राप्त भावावेगों का निदर्शन करती है। अपने परवर्ती ग्रंथों में तो निश्चय ही वह सद्गुणों के प्रति सिवाय कर्ता के हित या सुख के अतिरिक्त किसी भी नैतिक बाध्यता को स्वीकार नहीं करता है, यद्यपि संक्षेप में वह यह बताने का प्रयास करता है कि उसका नैतिकता का सिद्धांत जिन कर्त्तव्यों की अनुशंसा करता है, वे सभी व्यक्ति के सच्चे हित है। यदि व्यक्ति स्वयं के आचरण पर शांत चित्त से किए गए विचार से प्राप्त आनंद के महत्त्व को ध्यान में रखे, किंतु यदि हम नैतिक चेतना को केवल एक विशेष प्रकार का सुखात्मक संवेग मानें, तो ह्यूम के नैतिक सिद्धांत में एक स्पष्ट प्रश्न खड़ा होता है, जिसका कि उसने कोई ठीक उत्तर नहीं दिया है। यदि नैतिक रुचि का सारतत्त्व दूसरों के सुख से युक्त सहानुभूति है तो यह विशेष संवेग सद्गुणों के अतिरिक्त उन अन्य वस्तुओं से, जो कि ऐसे सुख को उत्पन्न करने की प्रवृत्ति रखती है, क्यों उत्तेजित नहीं होता है? इस प्रश्न पर ह्यूम अपने आपको इस असंतोषजनक टिप्पणी से आश्वस्त करता है कि आवेगों और स्थाई भावों के अनेक वर्ग हैं, किंतु प्रकृति की मूलभूत रचना के आधार पर विचारशील बुद्धिमान्
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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