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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/191 में निर्णायक प्रयोगों के द्वारा अस्वीकार किया जा सकता है, उदाहरणार्थ- हम अक्सर दूरस्थ देशों एवं सुदूर अतीत में किए गए सद्गुणात्मक कार्यों की प्रशंसा करते हैं और एक विरोधी द्वारा किए गए कठिन दुरूह साहसपूर्ण कार्य का भी अनुमोदन करते हैं, यद्यपि हो सकता है कि उसके परिणाम हमारे विशेष हितों के लिए हानिकारक हो। संक्षेप में, हमें दूसरे व्यक्ति के सुख या दुःख के साथ एक सहचारी भाव (सहानुभूति) को स्वीकार करना होगा, जो कि मानव प्रकृति का एक ऐसा सिद्धांत है, जिससे अलग होकर हम किसी भी अधिक सामान्य सिद्धांत को प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकते हैं। यह सहानुभूति ही उन विभिन्न गुणों के सम्बंध में हमारे अनुमोदन की सम्पूर्ण व्याख्या प्रस्तुत कर सकती है, जो वैयक्तिक सद्गुण का सामान्य प्रत्यय बनाते हैं। सामान्यतया सद्गुणों के रूप में प्रकाशित इन गुणों के सर्वेक्षण के द्वारा ह्यूम सहानुभूति की पद्धति से इसे सिद्ध करने का प्रयास करता है। वह सदैव ही इसे सद्गुणी कर्ता या दूसरे लोगों के लिए या तो उपयोगी या प्रत्यक्षतः सहमति (अनुमोदन) के योग्य मानता है। वह यह मानता है कि लोकहित और उपयोगिता पर विचार विमर्श उस नैतिक अनुमोदन का एकमात्र स्रोत है, जो कि कर्तव्यपरायणता, न्याय, सत्यवादिता, ईमानदारी और दूसरे महत्त्वपूर्ण सद्गुणों को दिया जाता है। साथ ही साथ, सहानुभूति राज्य-भक्ति सम्बंधी कर्तव्यों का मूल आधार भी है। वह न्याय के निदर्शक वादों में यह स्पष्ट करने का प्रयास करता है कि विधि सम्बंधी आबंध मानव प्रकृति में निहित आवेगों के यथार्थ संतुलन और उन विशेष अवस्थाओं और स्थितियों जिनमें व्यक्तियों को रखा गया है, पर पूर्णतया निर्भर है, क्योंकि इसके विपरीत किसी भी विचारणीय स्थिति में मनुष्य की स्थिति अतिबाध्यता या अति अनिवार्यता को उत्पन्न करेगी अथवा न्याय को निरर्थक बताकर मानव लक्ष्य में पर्याप्त उदारता एवं सदयता का रोपण या पूर्ण क्रूरता और घृणा का रोपण करेगी इस रूप में आप उसके सारतत्व को पूरी तरह समाप्त कर मानव जाति पर से उसकी आबन्धात्मकता को समाप्त कर देंगे। ___ इसी प्रकार यदि हम उन विशेष नियमों का परीक्षण करें, जिनके द्वारा न्याय का निदर्शन और सम्पत्ति के स्थायित्व का निर्धारण किया जाता है, तो हम पाएंगे कि लोकोपयोगिता ही उनकी प्रमाणिकता का आधार है, उदाहरणार्थ-कौन इस बात का ध्यान नहीं रखता है कि किसी मनुष्य की कला एवं परिश्रम से जो कुछ भी निर्मित या उत्पन्न किया जाए अथवा कोई सुधार किया जाए, उस वस्तु को हमेशा
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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