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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/171 बुद्धिमान् प्राणी को अपने नैतिक सत्य के बोध के अनुसार ही आचरण करना चाहिए, यद्यपि इस बोध से हम निश्चयपूर्वक यह स्वीकार करने के लिए योग्य हो जाते हैं कि विश्व की नियामक परम प्रज्ञा अर्थात् ईश्वर अपने प्राणियों की नियति को न्याय और परोपकारिता के अनुसार नियत करेगा और मनुष्य को तब तक सुखी बनाएगा, जब तक कि वह दुःखी होने की योग्यता को अर्जित नहीं कर लेता है। इसी आधार पर हम यह भी मान सकते हैं कि जब तक सभी मनुष्य विकृत, अनुत्तरदायी, गलत मान्यताओं से ग्रस्त और भयानक कष्टों एवं आदतों के द्वारा अस्वाभाविक रूप भ्रष्ट नहीं हो जाते हैं, यह उतना ही असम्भव है, जितना कि दो और दो चार नहीं मानना असम्भव है। क्लार्क हमेशा ही गणित और नीतिशास्त्र की समतुल्यता पर जोर नहीं देता है। जहां तक वह इस युक्ति का उपयोग करता है, वहां तक वह उचित है और होना चाहिए. जब तक बुद्ध नीति और गणित के बीच के मूलभूत विभेद को न केवल दृष्टि से ओझल करता है, अपितु इस अंतर के सम्बंध में अस्पष्ट रूप से वर्गाच्छादन भी करता है, जैसे-यह कहना है कि वह मनुष्य, जो न्याय के विपरीत आचरण करता है, वह वस्तुओं को इस रूप में चाहता है, जिस रूप में की वे नहीं हैं और नहीं हो सकती है। इस कथन से उसका जो तात्पर्य है, उसे निम्न सामान्य प्रकथन के द्वारा अल्प विरोधाभास के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है कि मूलतया और वस्तुतः यह इतना ही स्वाभाविक और नैतिक-दृष्टि से अनिवार्य है कि प्रत्येक कार्य में संकल्प का निर्धारण वस्तु विवेक और परिस्थिति के अधिकार के आधार पर होना चाहिए, जैसेयह स्वाभाविक और निरपेक्ष रूप से आवश्यक है कि विवेक-बुद्धि को निदर्शनात्मक सत्य को प्रस्तुत करना चाहिए। इन एवं अन्य समान उद्धरणों के द्वारा हम यह अनुमान कर सकते हैं कि यदि मनुष्य सुख और दुःख के प्रलोभन के कारण समदृष्टिता और सार्वभौमिक परोपकारिता के नियमों से विचलित होता है, तो क्लार्क की दृष्टि में इसका अर्थ यह न होगा कि सदाचार से विचलित होने का कोई ठोस कारण है। परंतु आंशिक रूप में इसका कारण अबौद्धिक आवेगों को माना जा सकता है। किंतु बाद में जब वह भावी पुरस्कार अथवा दंड का तर्क देता हैं तब हम यह पाते हैं कि नैतिकता के सम्बंध में उसके दावे आश्चर्यजनक रूप से निर्बल हैं। अब वह केवल इतने से ही संतुष्ट है कि सद्गुणों का चयन स्वतःसाध्य के रूप में करना चाहिए और दुर्गुणों से बचना चाहिए, यद्यपि एक व्यक्ति अपनी स्थिति के बारे में निश्चित है कि उनके अभ्यास से उसे न तो कुछ मिलने वाला है न तो कुछ होने वाला है। क्लार्क पूर्ण रूप
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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