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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/170 दूसरे मनुष्यों के लिए अनुपयुक्त होती है। इन सम्बंधों पर विचार करने के हेतु बुद्धि के लिए यह उपयुक्तता या अनुपयुक्तता वैसी ही अंतःप्रज्ञात्मक रूप में प्रमाण होती है, जैसे कि गणित की सम और विषम संख्याएं। क्लार्क इस सामान्य विचार की उचितता को चार मुख्य नियमों की स्वतःप्रामाण्यता के आधार पर स्पष्ट करता है। ये चार मुख्य नियम हैं- (1) ईश्वर के प्रति पवित्रता, (2) प्राणियों के प्रति समानता, (3) परोपकारिता और (4) अपनी आत्मा के प्रति कर्तव्य का नियम, जिसे वह संयम कहता है। इन नियमों में अंतिम नियम को क्लार्क ने जिस ढंग से परिभाषित किया है, उससे यह अपने आबंध के रूप में प्राथमिक और स्वतंत्र प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि यह कर्त्तव्य के परिपालन की दृष्टि से आवेगों एवं क्षुधाओं के नियमन तथा जीवन के संरक्षण को स्वीकार करता है, जो कि पूर्व से ही निश्चित है ऐसा मान लिया गया है। क्लार्क पवित्रता के नियम की अपनी विवेचना में मुश्किल से ही उस नियम स्पष्टता के लिए प्रयास करता है जिसका निर्देश उसके गणितीय उदाहरण करते है । वस्तुतः क्लार्क के सिद्धांत में समानता और सार्वभौमिक परोपकारिता का नियम ही ऐसा है जो सामाजिक कर्तव्यों को निर्धारित करता है जिसमें उस गणितीय समरूपता का अर्थ एवं शक्ति प्रकट होती है। दूसरे व्यक्ति ने जिस कार्य को मेरे प्रति किए जाने पर विवेकयुक्त या विवेकरहित मानता है, तो मुझे भी मेरे द्वारा दूसरों के प्रति किए जाने वाले वैसे ही कार्य को उसी के समान परिस्थिति में उसी निर्णय के आधार पर विवेकपूर्ण या विवेकरहित घोषित करना चाहिए। निस्संदेह समानता का यह सिद्धांत गणितीय एवं सिद्धि से निश्चित समानता रखता है। यही बात उस सिद्धांत के सम्बंध में भी कही जा सकती है कि निस्संदेह में कम शुभ की अपेक्षा अधिक शुभ का वरण करना चाहिए, चाहे वह शुभ (हित) हमारा हो या अन्य किसी का। इस सिद्धांत को हम मूर के ग्रंथ 'नियोमेटा मारलिया' में कुछ भिन्न रूप में देख चुके हैं।
यदि किसी दृष्टि में इन तर्क वाक्यों को स्वतःप्रमाण्य मान भी लिया जाए, तो भी यह प्रश्न विचारणीय रहता है कि कहां तक इनका अंतःप्रज्ञात्मक ज्ञान व्यक्ति के संकल्प के निर्धारण में निर्णायक होता है या होना चाहिए। इस प्रश्न पर क्लार्क के कथन की समीक्षा हमें यह बताती है कि इस सम्बंध में जिस दृष्टिकोण को वह मान्य रखना चाहता है, उस दृष्टिकोण में किसी भी रूप से न तो इतनी स्पष्टता ही है और न इतनी सुनिश्चितता ही है, जितनी कि उसके कथनों के सामान्य तात्पर्य में निहित होती है। प्रथम दृष्टि में वह बिना किसी अपेक्षा के यह सिद्धांत स्थापित करता है कि एक