SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/169 की तर्क प्रणाली पर आधारित है। इस कारण उसका हाव्स और लाक से इस बात में विरोध बना रहा कि स्वतःप्रमाण्य व्यावहारिक तर्कवाक्यों का ज्ञान सुख और दुःख से स्वतंत्र अपने आप में होता है, उसकी दृष्टि में यह ज्ञान एक बुद्धिमान् प्राणी के लिए तदनुसार आचरण करने के लिए एक पर्याप्त प्रेरक सिद्ध होगा, जिनमें कि क्लार्क की विचारधारा अभिव्यक्त हुई है, उन व्याख्यानों का मुख्य उद्देश्य ईसाई-धर्मशास्त्र की बुद्धिसंगतता और निश्चितता को सिद्ध करना था। अपने इस धार्मिक दृष्टिकोण के द्वारा वह एक ओर मनुष्यों पर नैतिकता के शाश्वत एवं अपरिवर्तनशील आबंधों की अनिवार्यता को वस्तुओं के अपने स्वरूप एवं कारण के आधार पर सिद्ध करता है तथा दूसरी ओर बिना किसी प्रभावकारी उद्देश्य से अथवा बिना आत्मा की अमरता और भावी जीवन में मिलने वाले पुरस्कार एवं दंड की आस्था के इन आबंधों का बचाव करना या इन्हें पूरी शक्ति के साथ लागू कर पाना असम्भव मानता है। जैसा कि हम आगे देखेंगे उसके उद्देश्यों का यह दोहरापन उसकी विवेचना को सूक्ष्म बनाने की अपेक्षा उलझा देता है, जिसे हमें उसकी विचारधारा की समालोचना करते समय सदा बयान में रखना होगा। वह निम्न दोनों ही बातों को स्पष्ट करने के लिए आतुर है, एक तो यह कि ये नैतिक नियम ईश्वरीय विधान की नैतिक बाध्यता से स्वतंत्र होकर भी आबंधक है और दूसरे यह कि ये नियम ईश्वरीय नियम हैं और जिनके पालन करने अथवा उल्लंघन करने के साथ नैतिक बाध्यता जुड़ी हुई है उसकी विचारधारा में ये दोनों तर्क अनिवार्यतया एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हम केवल समग्र बौद्धिक संकल्पों पर न्याय की निरपेक्ष बाध्यता के द्वारा ही ईश्वर की दार्शनिक निश्चितता का अनुमान कर सकते हैं, क्योंकि ईश्वर वस्तुतः न्यायी है और इसलिए अशुभ अर्हता के लिए दंड और शुभ अर्हता के लिए पुरस्कार देगा। उसके तर्क के इस प्रथम एवं पूरी तरह से नैतिक भाग की समीक्षा करते समय यह सुविधाजनक होगा कि उसे दो प्रश्नों में बांट दिया जाए (1) क्या नैतिकता के स्वतःप्रमाण्य एवं शाश्वत सिद्धांत हैं?और (2) वैयक्तिक संकल्पों से उनका क्या सम्बंध है? हमें जिस रूप में नैतिक सिद्धांतों का बोध होता है, उसका सामान्य विकल्प यह है कि विभिन्न वस्तुओं के एक-दूसरे के साथ जो विभिन्न प्रकार के अनिवार्य एवं शाश्वत सम्बंध हैं, उनके कारण विभिन्न वस्तुओं या विभिन्न सम्बंधों में एक दूसरे के साथ उपयोग की उपयुक्तता और अनुपयुक्तता होती है। वस्तुओं की प्रकृति अथवा मनुष्यों की योग्यता के अनुसार कुछ परिस्थितियां कुछ मनुष्यों के लिए उपयुक्त एवं अनुकूल होती है और वे ही परिस्थितियां
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy