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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/172 से यह भी स्वीकार करता है कि यह प्रश्न तय और बदल जाता है कि जबकि एक बुरा व्यक्ति बुराई के द्वारा सुख और सुविधाओं के युक्त होता है और सद्गुणी सद्गुणों के द्वारा हानि और कष्टों का सामना करता है और मात्र इतना ही नहीं है। यह वस्तुतः उचित नहीं है कि सद्गुणों का पालन करने वाले व्यक्तियों को अपने जीवन के निर्वाह से भी वंचित होना पड़े सिवाय इसके कि वे स्वयं ही अपनी सद्गुण निष्ठा के कारण किसी भी प्रकार के लाभ उठाने की सम्भावना को स्वयं ही न ठकरा दें। यदि मानवजीवन की केवल आनुभविक ज्ञान-अवस्थाओं को ही हम अपने विचारों में लें, तो अव्यक्त रूप से क्लार्क यह स्वीकार करता है कि वैयक्तिक दृष्टिकोण से सद्गुणों की अपेक्षा वैयक्तिक हितों को प्राथमिकता देना तर्कसंगत है, यद्यपि निरपेक्ष या सार्वभौमिक दृष्टिकोण से यह बुद्धिसंगत है कि स्वहितों की अपेक्षा सद्गुणों का वरण किया जाए। इन दोनों प्रकार की तार्किक संगतियों के मध्य का विरोधाभास है। निस्संदेह नैतिक सत्यों के अनुरक्षण के लिए धर्मशास्त्र की आवश्यकता बताने हेतु यह सुविधाप्रद है, किंतु क्लार्क का धार्मिक चिंतन यह बताता है कि नैतिक सत्यों को धर्मशास्त्र से स्वतंत्र एवं अकाट्य रूप में स्थापित किया जाना चाहिए, ताकि ईश्वर के गुणों को दार्शनिक रूप से जाना जा सके। फिर भी यह विरोधाभास उसके सिद्धांत की कमजोरी का मूल आधार है। इसने व्यावहारिक बुद्धि के सहजबोधों के विरोध को स्पष्ट किया है, जबकि क्लार्क इन सहज बोधों की तुलना गणितीय सहज बोधों से करता है, किंतु गणितीय सहज बोधों में इसके समान कुछ भी नहीं पाया जाता है। इस प्रकार, अंततोगत्वा क्लार्क ने अपनी प्रभावशीलता एवं ईमानदारी के साथ बौद्धिक नैतिकता का सिद्धांत प्रस्तुत किया था, किंतु उसने नीतिशास्त्र को स्वतंत्र दार्शनिक आधार पर स्थापित करने में अधिक कठिनाइयां ही सही है। जहां तक हाव्स के मनोवैज्ञानिक स्वार्थवाद को पूरी तरह समाप्त नहीं कर दिया जाता है। वहां तक ऐसा कर पाना कठिन ही है। जब तक कि यह नहीं किया जाता, सामाजिक कर्त्तव्यों की निरपेक्ष बौद्धिकता का निदर्शन हमें निरपेक्ष बुद्धि और मनुष्य की क्षुधात्मक प्रकृति में सामान्यतया निहित स्वहित के दृष्टिकोण के मध्य होने वाले विरोध को असमन्वयात्मक स्थिति में ही छोड़ देना होता है। यदि हम यह मान लें कि अन्यायपूर्वक कार्य करने में उतनी ही बौद्धिक विसंगति है, जितने कि दो और दो चार होते हैं इस बात को अस्वीकार करने से होती है, तो भी एक व्यक्ति को जब दुःख और विसंगति में से किसी एक को चुनना हो, तो वह विसंगति को ही चुनेगा, किंतु जैसा कि हमने देखा था, क्लार्क
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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