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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/165 सिद्धांत को प्राथमिकता देने वालों में कम्बरलैण्ड मुख्य है, इसलिए उन्हें परवर्ती उपयोगितावाद का अग्रदूत भी कहा जा सकता है। उनका मुख्य सिद्धांत एवं प्रकृति का सर्वोच्च नियम, जिसमें कि दूसरे सभी प्राकृतिक नियम अंतर्निहित हैं, यह है कि प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति के लिए शेष सभी लोगों के प्रति सर्वाचिक सम्भाव्य परोपकार' अपनी शक्ति के अनुसार सभी लोगों की और प्रत्येक व्यक्ति की आनंद की अवस्था को निर्मित करना है, जो कि उसके आनंद के लिए अनिवार्य रूप से अपेक्षित है। इस प्रकार, सामान्य शुभसंकल्पही सर्वोच्च नियम होते, यद्यपि यह ध्यान रखना आवश्यक है कि व्यक्ति के शुभ में साधारण रूप से केवल आनंद ही अंतर्निहित नहीं है, वरन् पूर्णता भी अंतर्निहित है। कम्बरलैण्ड ने पूर्णता को इतनी कठोरता से परिभाषित नहीं किया है कि नैतिक पूर्णता का विचार उससे बहिर्गत हो। इस प्रकार वह नैतिकता की व्याख्या को एक स्पष्ट तार्किक चक्र में बचाता है, किंतु विशेष नैतिक नियमों के सूक्ष्मता-पूर्वक निगमन के लिए ऐसी अपूर्ण रूप से निश्चित की गई धारणा का उपयोग मुश्किल से किया जा सकता है। वस्तुतः, कम्बरलैण्ड ऐसा प्रयास भी नहीं करता है। उसका मुख्य सिद्धांत सामान्य नैतिकता को संशोधित करने के लिए नहीं है, अपितु उसे समर्थन देने एवं व्यवस्थित करने के लिए है। जैसा कि पहले कहा गया है, निश्चित ही यह सिद्धांत नैतिकता को एक नियम के रूप में स्वीकार करता है और इसलिए इस नियम के निर्माता ईश्वर की ओर संकेत करता है, साथ ही इस नियम के पालन करने अथवा इसका उल्लंघन करने पर कर्ता के सुख को प्रभावित करने की बाध्यता से युक्त है। कम्बरलैण्ड अनेक आगमनात्मक प्रमाणों की समीक्षा के उपरांत मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक संरचना में अभिव्यक्त सामाजिकता के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास करता है कि इस नियम के द्वारा ईश्वरीय संकल्प प्रकट होता है, यद्यपि मनुष्य इतना भाग्यशाली नहीं है कि वह इसे जन्मना प्रत्यय के रूप में धारण करता है। पुनः, उसकी नैतिक बाध्यता (नैतिक अंकुश) की विवेचना, जिसमें कि सद्गुण के आंतरिक एवं बाह्य पुरस्कार तथा दुर्गुण के आंतरिक एवं बाह्य दण्ड का विचार निहित है, पूर्णतया बोधगम्य हैं। परवर्ती उपयोगितावादियों के समान ही वह भी यह बताता है कि नैतिक दायित्व प्राथमिक रूप में इन नैतिक बाध्यताओं के द्वारा संकल्प पर डाले गए दबाव में निहित रहता है। यद्यपि वह यह मानता है कि यह स्वार्थवादी प्रेरक अपरिहार्य है और सामान्यतया एक सदाचारी मनुष्य के द्वारा नैतिकता के पालन करने की प्रारम्भिक अवस्थाओं में कर्म का सामान्य चालक होता है तथा
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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