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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 166 बुद्धिमान प्राणी इससे ऊपर उठकर ईश्वरीय प्रेम के उच्च प्रेरक की ओर अभिमुख होते हैं, उसका सम्मान करते हैं और सामान्य सुख के लिए निष्काम भाव से प्रवृत्ति करते हैं। किंतु उसके भिन्न-भिन्न कथनों के प्रति, जैसे वैयक्तिक शुभ और सामान्य शुभ के बीच में सम्बंध के प्रति और इस पद्धति के प्रति स्पष्ट और संगतिपूर्ण दृष्टिकोण रख पाना कठिन है, जिसके अनुसार दोनों या उनमें से कोई एक संकल्प का निर्धारण करता है। लाक (1632-1704 ) जिस स्पष्टता को हमनें कम्बरलैण्ड में व्यर्थ ही ढूंढने का प्रयास किया था, वह स्पष्टता प्रसिद्ध लेखक लाक में अपनी पूर्ण व्यापकता के साथ पाई जाती है। लाक की नीति सम्बंधी पुस्तक की रूपरेखा कम्बरलैण्ड ग्रंथ के प्रकाशित होने के समय तैयार हो चुकी थी, यद्यपि लाक के नैतिक विचारों को अधिकांशतया गलत रूप में समझा गया है। आधुनिक नैतिक विवेचनाओं में सामान्यतया पाई जाने वाली जन्मजात प्रत्ययों और अंतः प्रज्ञा के बीच की भ्रांति के कारण यह मान लिया गया कि आंग्ल अनुभववाद के प्रवर्त्तक अनिवार्यतया अंतःप्रज्ञावादी नीतिशास्त्र के विरोधी रहे हैं, किंतु जहां तक कि नैतिक नियमों के निर्धारण का प्रश्न है, यह पूर्णतया गलत धारणा है। यद्यपि यह निस्संदेह सत्य है कि लाक इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करता है, जो यह मानता हो कि कुछ नियमों के नैतिक आबंधों (दायित्वों) का बोध केवल बुद्धि के द्वारा हो जाता है या बुद्धि किन्हीं नैतिक नियमों के पालन करने या नहीं करने से व्यक्ति पर होने वाले पूर्वानुमानित परिणामों से अलग नैतिक आबन्धों ( दायित्वों) के पालन का एक सक्षम प्रेरक है। शुभ और अशुभ अन्य कुछ नहीं मात्र सुख और दुःख है, अथवा सुख या दुःख की उपलब्धि के अवसर या बाधाएं हैं, इस व्याख्या में वह हाव्स से वास्तविक सहमति रखता है। लाक नैतिक शुभ और नैतिक अशुभ की परिभाषा किसी नियम के प्रति हमारे संकल्पित कर्म के अनुमोदन के रूप में करता है, जहां हमारे लिए शुभत्व और अशुभत्व का निर्धारण नियम की मान्यता और संकल्प - शक्ति से होता है, किंतु लाक हास के विरोधियों से भी इस सम्बंध में पूरी सहमति रखता है कि नैतिक नियम राजनीतिक समाज से स्वतंत्र होकर भी आबंधात्मक हैं और अंतः प्रज्ञा के द्वारा ज्ञान होने के सिद्धांत या वैज्ञानिक आधार पर खड़े होने में सक्षम हैं, यद्यपि वह इन्हें मानव मन में जन्मना उपस्थित नहीं मानते हैं। ऐसे नियमों की सम्पूर्णता को ही वह ईश्वरीय
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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