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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/143 विभिन्न अवस्थाओं के द्वारा मन को आनंद प्रदान करती है, तो दूसरी ओर बुद्धि की क्रियाओं को जाग्रत करती है। इस प्रकार व्यक्ति पुत्र की पिता से समानता की शाश्वत रूप में सृष्ट प्रतिच्छवि को देखेगा और पूर्ण सौन्दर्य और पूर्ण आनंद और पूर्णसत्य के बोध की दिशा में प्रगति करेगा। तीसरे बाह्य-जगत् से विमुख होकर आत्मिक शक्ति और स्वरूप पर ध्यान केंद्रित करते हुए, उसे देखना चाहिए कि किस प्रकार स्मृति भूत, भविष्य और वर्तमान को जोडती है तथा शाश्वत सामान्य तत्त्व के सत्यों के प्रतिरूपों को सुरक्षित रखती है और हमें उस अनन्य की प्रतिमूर्ति देती है। साथ ही यह इसे भी देखना चाहिए कि बुद्धि अपनी क्रियाशीलता में किस प्रकार सर्वाधिक पूर्ण निर्विकार और अवश्यम्भावी सत्ता की अपरिहार्य धारणा के द्वारा नियंत्रित होती है और बौद्धिक चयन की प्रक्रिया किस प्रकार अपने में सर्वोच्च शुभ का प्रत्यय समाहित करती है। इसके पश्चात् यह देखकर कि किस प्रकार स्मृति स्वतः ही प्रज्ञा को उत्पन्न करती है और फिर इन दोनों के सहयोग से प्रेम की अभिवृद्धि होती है, उसे दर्पण के प्रतिबिम्ब के समान ईश्वर की त्रैतता का दर्शन होगा। यहां तक तो आत्मा अपनी स्वाभाविक शक्तियों के द्वारा विकास कर सकती है, किंतु चौथे स्तर पर उसे श्रद्धा, आशा और दान के अति-भौतिक सद्गुणों से युक्त ईश्वरीय-कृपा की आवश्यकता होगी। इस ईश्वरीय कृपा के द्वारा उसे ईश्वरीय स्वभाव की अपरोक्ष आध्यात्मिक अनुभूति होगी और इससे उसे भक्ति, स्तुति और आनंद के चरम हर्षोन्माद की प्राप्ति होगी। इस प्रकार वह निष्पाप, प्रकाशित और अतिक्राम होकर श्रेणीबद्ध देवदूतों के प्रतिबिम्ब का इस रूप में ध्यान कर सकेगा कि सभी में ईश्वर का निवास है और ईश्वर सभी को संचालित कर रहा है। इसके पश्चात् आत्मा की विशुद्ध प्रज्ञा के द्वारा ईश्वर का दर्शन न तो दर्पण के प्रतिबिम्ब के रूप में होगा न आत्मा में ईश्वर की प्रतिच्छाया के रूप में होगा। वरन् ईश्वर का दर्शन उसके अपने यथार्थ स्वरूप में होगा, अर्थात् निषेधरहित विशुद्ध-सत्ता तथा समस्त बोधगम्य जगत् के मूल स्रोत के रूप में होगा, किंतु इससे भी उच्च-स्तर है, जिसमें सभी मनुष्यों में किसी न किसी मात्रा में उपस्थित आत्मिक शुभ के प्रति लगाव का शाश्वत एवं भम्रहीन तत्त्व जिसे सामान्यतया अंतरात्मा कहते हैं, अपने पूर्ण विकास को प्राप्त होती है। इस शक्ति के द्वारा ईश्वर का ध्यान निरपेक्ष सत्ता के रूप में नहीं, किंतु पूर्ण शुभता के रूप में किया जाता है। जिसका सारतत्व अपने आपको पूर्णता के रूप में प्रकट करता है, इसलिए इस स्तर पर त्रैतता के रहस्य का प्रत्यक्षज्ञान हो जाता है। इस रहस्य का सार ईश्वरीय
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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