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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 132 न शक्ति के रूप परिभाषित करने में भी आगस्टिन का अनुसरण करता है, किंतु यह कह कर कि आदम अपनी स्वेच्छा से अथवा अपने स्वतंत्र चयन के द्वारा पतित हो गए, कि अपनी स्वतंत्रता से पतित हो गए। इस प्रकार एन्सेल्म में अव्यक्त रूप से एक अंतर की ओर संकेत किया है, जिसे बाद में पीटर और लेम्बार्ड ने पाप की गुलामी से स्वतंत्रता और निर्धारणता से स्वतंत्रता (अर्थात् अनिवार्यता की विरोधी स्वतंत्रता) के बीच स्पष्ट किया है। एन्सेल्म पूर्व-निर्धारित भाग्यवाद की आगस्टिन की धारणा को इस व्याख्या के द्वारा मृदु बना देते हैं कि पतित व्यक्ति भी जो उचित है, उसके संकल्प करने की स्वतंत्रता से पूरी तरह वंचित नहीं होता है, यह (संकल्प की स्वतंत्रता) तो उसके बौद्धिक स्वभाव में ही निहित है, यद्यपि आदम के पाप के पश्चात यह संकल्प की स्वतंत्रता मनुष्य में अंधकार में देखने की शक्ति के समान केवल बीज के रूप में ही है, सिवाय उस स्थिति के, जबकि इसे ईश्वरीय कृपा के द्वारा वास्तविक नहीं बनाया गया हो। एबेलार्ड (1079-1142 ) बेलार्ड अधिक आधुनिक ढंग से मनुष्य के दुर्दण्ड और स्वतंत्र चयन के बीच पाप की अधिक स्पष्ट धारणा के द्वारा सम्बंध स्थापित करते हैं। वे दुराचरण के प्रति मात्र झुकाव, जो कि पतित मनुष्य को वंशानुक्रम से प्राप्त होता है और बाह्य कुकर्म, जो इस झुकाव का परिणाम होता है, दोनों से वास्तविक पाप को अलग करते हैं। दुराचरण के प्रति झुकाव, जहां तक कि वह अनैच्छिक है, पाप नहीं है जैसा कि वह बताता है। वस्तुतः उसका अस्तित्व हमारी मानवीय सद्गुण की उस पूर्व धारणा में निहित है जो कि दुर्वासनाओं के विरुद्ध सफलतापूर्वक संघर्ष में बनती है। हमारे किसी कर्म के बाह्य परिणाम को भी पाप नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि इस बात के भी प्रमाण हैं कि ये बाह्य परिणाम अज्ञान या बाध्यता के द्वारा हमारी ओर से बिना किसी नैतिक अपराध के भी निष्पन्न हो सकते हैं, अतः पाप मात्र ईश्वर या उसकी आज्ञाओं की अवहेलना में है, जो कि दुर्वासनाओं की चेतन स्वीकृति में ही अभिव्यक्त होता है। तदनुसार, बुराई के प्रति इस आंतरिक स्वीकृति के आधार पर प्रायश्चित्त की योजना की जाना चाहिए, न कि किसी कार्य के बाह्य परिणाम के आधार पर सच्चे प्रायश्चित्त का सारतत्त्व तो स्वयं पाप से घृणा है, न कि उसके परिणामों से। इस आधार पर एबेलार्ड यह निष्कर्ष निकालने से भी झिझकता है कि आचरण की उचितता पूर्णतया अभिप्राय पर आधारित होती है और इसलिए सभी
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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