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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/131 है, क्योंकि पाण्डित्यवादी विचार परम्परा से उनकी कालिक दूरी कहीं अधिक है, जो कि उन्हें उससे अलग करती है। जब वे ईसाई आस्था के साथ समायोजन करते हुए अपनी दार्शनिक विवेचना करते हैं तो न तो अपनी तर्क पद्धति में आप्तवचन प्रिय नहीं के प्रति पूर्ण आस्था प्रकट करते हैं और न अपने निष्कर्षों में पूर्णतया परम्परावादी बनते हैं, जबकि ये दोनों अपने कठोर अर्थ में पाण्डित्यवाद के मुख्य लक्षण हैं। ऐरीजेना के दर्शन पर प्लेटो और प्लोटिनस का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है, जो कि डायनिसिअस दा ऐरीओपेगिट नामक किसी अज्ञात लेखक के माध्यम से उन पर पड़ा था, तदनुसार उनके दर्शन के नैतिक पहलू में वही निषेधात्मक और संन्यासमार्गी लक्षण दिखाई देते हैं, जो कि नव प्लेटोवाद में मिलते हैं। उनका कहना है कि मात्र ईश्वर ही सत् है, दूसरी प्रत्येक वस्तु की सत्ता वहीं तक है, जहां तक कि ईश्वर उसमें अपने को अभिव्यक्त करता है। ईश्वर की दृष्टि से अशुभ अज्ञेय और असत् है, विश्व में उसकी मात्र भ्रामक प्रतीती है, जिसमें मनुष्य पड़ा हुआ है। मनुष्य के जीवन का सच्चा साध्य तो इस आभासी भौतिक अस्तित्व से ऊपर उठकर ईश्वर के साथ पूर्णतया एकात्म हो जाता है। यह सिद्धांत उसके समकालीन विचारकों में नहीं पाया जाता है। निश्चित ही यह सिद्धांत शास्त्र-विरुद्ध था और इसलिए पोप होनरीअस तृतीय के द्वारा इसकी जो आलोचना की गई वह उचित ही थी, किंतु 12 वीं एवं 13 वीं शताब्दी के भावपूर्ण पारम्परिक रहस्यवाद के विकास में कुंदनवेशी हीयोनिसिअस के साथ एरीजेना का महत्वपूर्ण योगदान है। नवप्लेटोवादी परम्पराओं से अनुप्राणित प्लेटोवाद अथवा नवप्लेटोवाद मध्ययुगीन विचारों से अलग बना रहा यद्यपि परिपक्व पाण्डित्यवाद के युग में अरस्तू के सर्वाधिक प्रभाव के कारण तिरोहित-सा हो गया था। एन्सेल्म (1033-1109) __ अपने सही अर्थ में पाण्डित्यवाद का प्रारम्भ शास्त्रीय ईसाई धर्म के परम्परागत दर्शन को यथासम्भव तार्किक संगति के साथ प्रस्तुत करने के एन्सेल्म के व्यापक एवं गम्भीर प्रयत्नों से होता है। यद्यपि नीतिशास्त्र के क्षेत्र में एन्सेल्म का महत्वपूर्ण योगदान केवल संकल्प की स्वतंत्रता की समस्या के सम्बंध में है। हम देखते हैं कि आगस्टिन का मूल पाप की धारणा को तथा मनुष्य के लिए अनर्जित प्रभु-कृपा की निरपेक्ष आवश्यकता को उसके मुक्ति सिद्धांत में भी स्वीकार किया गया है। वह स्वतंत्रता को पाप नहीं करने की
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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