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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/121 विनम्रता ईसाई धर्म का विनम्रता का विशिष्ट सद्गुण ग्रीक परम्परा के आत्मगौरव की भावना का विरोधी दिखाई देता है। किसी सीमा तक इस विनम्रता को ईसा के उपदेशों में खोजा जा सकता है। नवीन धर्म के अंतर्गत इसकी सर्वाधिक प्रमुखता किसी अंश में ईसा की शिक्षाओं और उनके जीवन से सम्बंधित है और आंशिक रूप से यह बाह्य पद या गौरव (प्रतिष्ठा) के त्याग में अथवा लौकिक उपहारों और उपलब्धियों के त्याग में अभिव्यक्त होता है। यह भी सांसारिक विमुखता का भी एक पहलू है, जिस पर हम पूर्व में चर्चा कर चुके हैं। अधिक गहन विनम्रता यह है, जो वैयक्तिक श्रेष्ठता के दावे का दमन करती है, चाहे वे दावे एक सतपुरुष के ही क्यों न हों। कठोर आत्मआलोचन, अपूर्णता का सतत् बोध और उस (ईश्वरीय) शक्ति पर परम विश्वास, जो कि उसकी स्वयं की नहीं है, जो एक ईसाई के आंतरिक नैतिक जीवन का लक्षण है और विनम्रता के क्षेत्र के अंतर्गत आती है। इस परवर्ती अर्थ में ईश्वर के प्रति विनम्रता सच्चे ईसाई शुभत्व की एक आवश्यक इति है। धार्मिक कर्त्तव्य आज्ञापालन, सहनशीलता, परोपकार, शुद्धता, विनम्रता, संसार एवं भोगों के प्रति विरक्ति आदि वे नवीन एवं असाधारण तथ्य हैं, जिन्हें आचरण का ईसाई आदर्श प्रस्तुत करता है। इस सीमा तक ईसाई धर्म को ग्रीक रोमन समाज के द्वारा सामान्यतया स्वीकृत सिद्धांतों के साथ-साथ रखा जाता है, किंतु हमें अभी श्रुतिपरक धर्म (ईसाई धर्म) से नीतिशास्त्र के नए सम्बंध के कारण विकसित उसके क्षेत्र के विस्तार को भी देखना होगा। हालांकि सामान्य नैतिक दायित्वों के साथ धार्मिक शक्ति और बाध्यता के नैतिकपक्ष को अधिक निश्चितता के साथधार्मिक विश्वासों और उपासना की ओर प्रवृत्त कर दिया गया है। वस्तुतः, मनुष्यों के प्रति कर्त्तव्य की धारणा से भिन्न ईश्वर के प्रति कर्त्तव्य की धारणा को गैर ईसाई नीतिवेत्ताओं ने भी स्वीकार किया है। न केवल पाइथागोरस तथा नव पाइथागोरसवाद और प्लेटो तथा नव प्लेटोवाद के सम्प्रदायों में किंतु, स्टोइकवाद में भी किसी रूप में इस धारणा पर बल दिया गया है, किंतु सामान्यतया उन अनिश्चित और मिश्रित सम्बंधों ने, जिनमें प्रचलित बहुदेववाद के साथ दार्शनिक ईश्वरवाद खड़ा था, जिससे किसी भी दार्शनिक परम्परा में पवित्रता को उसका प्रमुख स्थान प्राप्त करने से रोकने की ओर प्रवृत्त किया, ईसाई शिक्षाओं में एवं स्टोइकों के अनुसार आचरण के औचित्य के लिए प्रज्ञा अनिवार्य
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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