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गुरु-स्तुति
हे गुरु ! तव मूर्ति अद्भुत, ध्यान का यह मूल है, हे गुरु ! तव चरण अद्भुत, पूजना के मूल है; हे गुरु ! तव वचन अद्भुत, मंत्र के ये मूल है, कलापूर्णसूरि ! गुरुदेव ! तू अद्भुत भक्ति-फूल है ।
'है तू ही ब्रह्मा तू ही विष्णु, तू ही है शंकर यहां, तू ही है परब्रह्म' गुरु की, है स्तुति यह अन्य में; पा कर तुम्हें गुरुदेव ! प्यारे ! हूं बना अतिधन्य मैं, अध्यात्मयोगी श्रीकलापूर्णप्रभु ! तुझको नमन ।
'गुरु' शब्द का संदेश सुन लो : है रहस्यों से भरा, 'गु' गुणातीत 'रु' रूपातीत है प्रभु सोचो जरा; प्रभु प्राप्त करना हो अगर सेवो गुरु, गुरु द्वार है, कलापूर्णसूरि गुरुदेव को वंदन करो, उद्धार है ।
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तू दीप है, तू देव है गुरु ! तू ही दिव्य प्रकाश है, तू मात है, तू तात है गुरु ! तू ही चित्त-उल्लास है; तू स्वर्ग है, तू मुक्ति है गुरु ! तू धरा-आकाश है, कलापूर्णगुरुवर ! तू अहो ! अद्भुत भक्ति-विकास है ।
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रोती-रोती गंगा बोली : हो गई हूं आज मैं मैली, जल है दूषित सर्वथा मम, शुद्धि नष्ट हो गई मेरी; मत रो ओ गंगा मैया ! शुद्धि अभी सुरक्षित है, कलापूर्णसूरि नाम की गंगा, इस धरती पर बहती है । (रो रो ओ गंगामैया ! शुद्धि कभी सुरक्षित थी, कलापूर्णसूरि नाम की गंगा, इस धरती पर बहती थी.)
- रचयिता : श्री मुक्ति/मुनि
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