________________
गुरु-स्तुति
शरीर छे विष-वेलडी आ, गुरु अमृतनी खाण रे, माथु कपातां गुरु मळे जो, तोय सस्ता जाण रे, वर्णव्यो सघळे स्थळे, महिमा घणो सद्गुरु तणो, कलापूर्णगुरुने वंदतां आनंद थाये अति घणो ।
सम्यक्त्वनुं सर्जन करे तुं, तुं ज छे ब्रह्मा खरो, धारण करे शुभ धर्मने तुं, तुं ज छे विष्णु खरो; उच्छेदतो अज्ञानने शंकर जणायो तुं मने, परब्रह्मरूपी ओ कलापूर्णप्रभु ! वंदं तने ।
अनंत महिमा छे गुरुनो, अनंत नित उपकार छ, अनंत लोचन खोलनारा, गुरु सदा प्रभु-द्वार छ; अनंत तत्त्व बतावनारा, गुरु सुधारस धार छे, कलापूर्णसूरि गुरुदेव वंदूं, नक्की बेड़ो पार छ ।
'अमृत भरेलो गगन-मंडलमां रहेलो छे कूवो, गुरु-कृपाथी मेळवी अमृत पीए विनयी जुओ; तरसे मरे नगुरा बिचारा' इम कहे आनंदघन, अमृत-दाता ओ कलापूर्ण-प्रभु ! तुजने नमन ।
वात्सल्य तारुं एटलुं के सिंधु पण नानो पडे, माधुर्य तारुं एवं के साकर सदा फीकी पडे; सुप्रसन्नता तुज एटली के फूल पण झांखुं पडे, कलापूर्णसूरिदेव ! तारा चरणमां मुज शिर ढळे ।
- रचयिता : श्री मुक्ति/मुनि
93२*
*
*
*
*
*
*
*
*
*
*
*
*
s