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गुरु-स्तुति अष्टक प्यारा हता अरिहंत ने प्यारा जीवो संसारना, प्यारं हतुं प्रभु-नाम ने प्यारा पदो नवकारना; प्यारी हती प्रभु-भक्ति ने प्यारी हती निज-साधना, कलापूर्णसूरि-गुरु-चरणमां, हो भावभीनी वंदना
निज-देहमां रहेवा छतांये, देहथी न्यारी दशा, कार्यों करे पर-हित तणा पण चित्तमां चिन्मय दशा; वळी सर्वमां होवा छतां, जल-कमलवत् आसंग ना, कलापूर्णसूरि-गुरु-चरणमां, हो भावभीनी वंदना
॥ २ ॥ जे छे प्रतापी सूर्य जेवा सौम्य वळी शशधर समा, गंभीर जे सागर समा ने धीर वळी महीधर समा; जेनी प्रभा सुवर्ण जेवी, वाणी शीतल चंदना, कलापूर्णसूरि-गुरु-चरणमां, हो भावभीनी वंदना
छे नाम प्रभुनुं शक्तिशाली, काम प्रभुनुं जे करे, जे स्मरण-कीर्तन-भक्ति करतां मन भीतर जिनवर धरे; अरिहंत प्रभुना ध्यानमां अरिहंतमय जे चेतना, कलापूर्णसूरि-गुरु-चरणमां, हो भावभीनी वंदना
॥ ४ ॥ प्रभु-मूर्तिमां प्रभुने निहाळे, एवी निर्मल आंख छे, क्षणवारमा प्रभु-द्वार पहोंचे, एवी मननी पांख छे; जे नाम-मूर्ति-द्रव्य-भावे नित करे प्रभु-अर्चना, कलापूर्णसूरि-गुरु-चरणमां, हो भावभीनी वंदना
माधुर्य छे मैत्रीतणुं मुदिता तणी सुप्रसन्नता, कोमलपणुं करुणातणुं माध्यस्थ्यनी मनोहारिता; आ चार भावोथी सुभावित जेमनो शुभ आतमा,
कलापूर्णसूरि-गुरु-चरणमां, हो भावभीनी वंदना नथी मान-माया-लोभ ने समताभर्यो जे आतमा, नथी काम-कटुता-क्रोध-गृद्धि, शान्त निर्मल आतमा; नथी द्वेष-मत्सर-क्लेश के नथी नामनानी कामना, कलापूर्णसूरि-गुरु-चरणमां, हो भावभीनी वंदना।
॥ ७ ॥ जे कच्छ-वागड-देशना शृंगार अद्भुत गुरुवरा, श्री पद्म-जीत-हीर-कनकसूरि-देवेन्द्रसूरिवर हितकरा; जे शिष्य कंचन गुरु तणा करी विश्व-व्यापी नामना, कलापूर्णसूरि-गुरु-चरणमां, हो भावभीनी वंदना
॥ ८ ॥ - रचयिता : पू.पं. श्री कल्पतरुविजयजी
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