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अनुक्रमणिका
१. कर्म-सिद्धान्त १. नैतिक विचारणा में कर्म-सिद्धान्त का स्थान २. कर्म-सिद्धान्त की मौलिक स्वीकृतियाँ और फलितार्थ ३. कर्म-सिद्धान्त का उद्भव ४. कारण सम्बन्धी विभिन्न मान्यताएँ ५. औपनिषदिक दृष्टिकोण ६. जैन दर्शन का समन्वयवादी दृष्टिकोण ७. कर्म शब्द का अर्थ ८. कर्म का भौतिक स्वरूप ९. भौतिक और अभौतिक पक्षों की पारस्परिक प्रभावकता १०. कर्म की मूर्तता ११. कर्म और विपाक की परम्परा १२. कर्मफल संविभाग १३. जैन दर्शन में कर्म की अवस्था १४. कर्म विपाक की नियतता और अनियतता १५. कर्म सिद्धान्त पर आक्षेप और उनका प्रत्युत्तर
२. कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व १. तीन प्रकार के कर्म २. अशुभ या पाप कर्म ३. पुण्य (कुशल कर्म) ४. पुण्य और पाप (शुभ और अशुभ) की कसौटी ५. सामाजिक जीवन में आचरण के शुभत्व का आधार