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जड़ कर्म वर्गणाएँ परस्पर सापेक्ष हैं। जड़ कर्म वर्गणाओं के कारण मनोभाव उत्पन्न होते हैं और उन मनोभावों के कारण पुनः जड़ कर्म परमाणुओं का आस्रव एवं बन्ध होता है जो अपनी विपाक अवस्था में पुनः मनोभावों (कषायों ) का कारण बनते हैं । इस प्रकार मनोभावों ( आत्मिक प्रवृत्ति) और जड़ कर्म परमाणुओं के परस्पर प्रभाव का क्रम चलता रहता है। जैसे वृक्ष और बीज में पारस्परिक सम्बन्ध है वैसे ही आत्मा के बन्धन की दृष्टि से आत्मा की अशुद्ध मनोवृत्तियों (कषाय एवं मोह) और कर्म परमाणुओं में परस्परिक सम्बन्ध है। जड़ कर्म परमाणु और आत्मा में बन्धन की दृष्टि से क्रमशः निमित्त और उपादान का सम्बन्ध माना गया है। कर्म पुद्गल बन्धन का निमित्त कारण है और आत्मा उपादान कारण है।
जैन विचारक एकान्त रूप में न तो आत्मा को ही बन्धन का कारण मानते हैं और न जड़ कर्म वर्गणाओं को, अपितु यह मानते हैं कि जड़ कर्म वर्गणाओं के निमित्त से आत्मा बन्ध करता है।
द्रव्य कर्म और भाव कर्म
कर्म के द्रव्यात्मक और भावात्मक ये दो पक्ष हैं । प्रत्येक कर्म संकल्प के हेतु के रूप में विचारक ( उपादान कारण) और उस विचार का प्रेरक ( निमित्त कारण) दोनों ही आवश्यक हैं। आत्मा के मानसिक विचार भाव-कर्म हैं और ये मनोभाव जिस निमित्त से होते है या जो इनका प्रेरक है वह द्रव्य कर्म है। कर्म के चेतन-अचेतन पक्षों की व्याख्या करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र लिखते हैं, पुद्गल पिण्ड द्रव्यकर्म हैं और उसकी चेतना को प्रभावित करनेवाली शक्ति भाव कर्म है । 30 कर्म सिद्धान्त के समुचित व्याख्या के लिए यह आवश्यक है कि कर्म के आकार ( Form ) और विषय वस्तु (Matter) दोनों ही हों। जड़ कर्म - परमाणु कर्म की विषयवस्तु हैं और मनोभाव उसके आकार हैं । हमारे सुख दुःखादि अनुभवों अथवा शुभाशुभ कर्म संकल्पों के लिए कर्म परमाणु भौतिक कारण हैं और
कर्म - सिद्धान्त
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