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मनोभाव चैतसिक कारण हैं। आत्मा में जो मिथ्यात्व (अज्ञान) और कषाय (अशुचित वृत्ति) रूप, राग-द्वेष आदि भाव हैं वही भाव कर्म हैं। भाव कर्म आत्मा का वैभाविक परिणाम (दूषित वृत्ति) है और स्वयं आत्मा ही उसका उपादान है। भावकर्म का आन्तरिक कारण आत्मा है, जैसे- घट का आन्तरिक (उपादान) कारण मिट्टी है। द्रव्य कर्म सूक्ष्म कार्मण जाति के परमाणुओं का विकार है और आत्मा उनका निमित्त कारण है, जैसे कुम्हार घड़े का निमित्त कारण है। आचार्य विद्यानन्दि ने अष्टसहस्त्री में द्रव्यकर्म को 'आवरण' और भाव कर्म को 'दोष' के नाम से अभिहित किया है। चूंकि द्रव्य कर्म आत्म शक्तियों के प्रकटन को रोकता है, अतः वह 'आवरण' है और भाव कर्म स्वयं आत्मा की ही विभावावस्था है, अतः वह 'दोष' है। जिस प्रकार जैन दर्शन में कर्म माने गये हैं-आवरण और विक्षेप। जैनाचार्यों ने आवरण और दोष अथवा द्रव्य कर्म और भावकर्म के मध्य कार्य-कारण भाव स्वीकार किया है। 1 जैन कर्मसिद्धन्त में मनोविकारों का स्वरूप कर्म परमाणुओं की प्रकृति पर निर्भर करता है
और कर्म परमाणुओं की प्रकृति का निर्धारण मनोविकारों के आधार पर होता है। इस प्रकार जैन धर्म में कर्म के चेतन और अचेतन दोनों पक्षों को स्वीकार किया गया है जिसे वह अपनी पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्यकर्म और भावकर्म कहता है।
जैसे किसी कार्य के लिए निमित्त और उपादान दोनों कारण आवश्यक हैं, वैसे ही जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार आत्मा (जीव) के प्रत्येक कर्मसंकल्प के लिए उपादान रूप में भावकर्म (मनोविकार) और निमित्तरूप में द्रव्यकर्म (कर्म-परमाणु) दोनों आवश्यक हैं। जड़ परमाणु ही कर्म का भौतिक या अचित् पक्ष है और जड़ कर्म-परमाणुओं में प्रभावित विकारयुक्त चेतना की अवस्था कर्म का चैत्तसिक पक्ष है। जैन दर्शन के अनुसार जीव की जो शुभाशुभरूप नैतिक प्रवृत्ति है, उसका मूल कारण तो मानसिक (भावकर्म) है लेकिन उन मानसिक वृत्तियों के लिए जिस बाह्य कारण की अपेक्षा है वही द्रव्य कर्म है। इसे हम व्यक्ति का परिवेश कह सकते [18]
जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त