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जैन-विभूतियाँ हुए। नया नामकरण हुआ भद्रमुनि। बड़े परिश्रम से उन्होंने स्वाध्याय प्रारम्भ किया। अध्ययन ओर विहार में बारह वर्ष बीत गए। बम्बई चतुर्मास में उनकी भेंट एक ज्योतिषी से हुई। ज्योतिषी ने उनकी जन्म-पत्रिका देखकर उनके "समाधि प्राप्ति'' की भविष्यवाणी कर दी। आगामी सूरत चातुर्मास में वेदनीय कर्मों के उदय से उनका शरीर काष्ठ की तरह जकड़
गया।
बारह वर्ष के स्वाध्याय तप के अन्तर्गत अन्यान्य भारतीय दर्शनों के अलावा भद्रमुनि ने श्रीमद् राजचन्द्र के तमाम साहित्य का अध्ययन किया। वे उनके साथ अपने पूर्व जन्म के सम्बंधों का अवगाहन करने लगे। तभी उनके अन्तर्मन में फिर एकान्तिक ध्यान साधना की प्रेरणा हुई। वे मौन रहने लगे एवं भगवान महावीर की तरह ही जंगल और गुफा में रहकर ध्यान साधना के अवकाश खोजने लगे। उन्होंने अपने दीक्षा गुरु की आज्ञा ली और आत्मदोहन के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चल पड़े। उन्होंने महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, मध्यप्रदेश, गुजरात एवं उत्तरप्रदेश के अंचलों में विहार किया। वे माउंट कैलाश (अष्टापद) भी पधारे। किन्तु साम्प्रदायिक घेराबन्दी से वे कोसों दूर रहे। वे श्रमण संघ में व्याप्त शिथिलाचार एवं बाड़ाबन्दी से दु:खी थे। उन्होंने स्वयं अनेक परिषह सहकर अपना जीवन-पथ प्रशस्त किया। वे हिमालय की कन्दराओं में योग-साधना रत रहने लगे। उनकी करुणा का कोई पार नहीं था। एक अन्य योगी को ठिठुरता देखकर उन्होंने अपना नया कम्बल उन्हें ही समर्पित कर दिया।
__समस्त तीर्थों के भ्रमणोपरांत उन्होंने स्वयं ही "सहजानन्दघन'' नाम धारण किया। उनके लिए समस्त दिगम्बर/श्वेताम्बर भेदों का लोप हो गया। गुफा एवं कन्दराओं में साधना का यह क्रम निरन्तर चला। उन्होंने ''सरला बहन'' नामक स्नातकोत्तर डाक्टरेट डिग्री धारी मुमुक्षु साधिका की सहायता की, जो अपने प्रेरक ईष्ट श्रीमद् राजचन्द्र की निर्वाण प्राप्त आत्मा के दर्शनोपरान्त सम्पूर्ण जागृति में समाधि मृत्यु को उपलब्ध हुई। कहते हैं सरला बहन की आत्मा सहजानन्दजी की चाची