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जैन-विभूतियाँ समुचित अध्ययन करवा दिया। सं. 1977 में मात्र 10 वर्ष की वय में आचार्य शोभाचन्द्र ने उन्हें भगवती दीक्षा अंगीकार करवाई।
आचार्यश्री अस्वस्थ थे। अत: उन्हें सं. 1979 से 1983 तक पाँच चातुर्मास जोधपुर में स्थिर वास करना पड़ा। इसी दरम्यान आचार्यश्री ने मुनि हस्तीमल को मात्र 15 वर्ष की वय में अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया। संघनायक के प्रतिष्ठित पद पर इतनी छोटी वय में मनोनयन का जैन इतिहास में यह प्रथम उदाहरण था। सं. 1983 में आचार्य शोभाचन्द्र जी के महाप्रयाण के बाद चतुर्विध संघ के निवेदन पर मुनि हस्तीमल जी ने अपने पूर्ण वयस्क होने तक वयोवृद्ध मुनि सुजानमल जी को संघ व्यवस्थापक एवं मुनि भोजराज जी को परामर्श दाता नियुक्त करना उचित समझा। पाँच वर्ष की इस अवधि के दौरान मुनि हस्तीमल जी ने पं. दुखमोचन झा से संस्कृत, प्राकृत, न्याय, दर्शन आदि का संगोपांग अध्ययन सम्पन्न किया। सं. 1987 में जोधपुर में आप मात्र 19 वर्ष की किशोर वय में रत्नवँशीय श्रमण संघ के आचार्य पद पर सुशोभित हुए।
आपका पहला चातुर्मास जयपुर में हुआ। यहीं से आपने अनेक लोककल्याण मूलक प्रवृत्तियों की प्रेरणा दी। इनके संचालनार्थ विभिन्न संस्थाएँ संस्थापित हुईं, जिसके फलस्वरूप शिक्षण एवं धर्म क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रान्ति हुई। उन्होंने अपने शासनकाल में 70 चातुर्मास किये एवं भारत के सुदूर प्रदेशों, यथा-राजस्थान, मध्यप्रदेश, मालवा, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, हरियाणा की यात्राएँ कीं।
उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था, वे एक सम्पूर्ण युग थे। उनकी प्रेरणा से संस्थापित जैन विद्वत् परिषद में अन्य सम्प्रदायों के विद्वानों को भी सदस्य मनोनीत किया गया। वे सरलता, करुणा एवं माधुर्य की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने विपुल साहित्य सर्जन किया। आगमिक व्याख्या साहित्य एवं जैन इतिहास के क्षेत्र में आपका अवदान सदा स्मरणीय रहेगा। नन्दी सूत्र, बृहत्कल्प सूत्र, प्रश्न व्याकरण सूत्र, अन्तगउदसा पर टीकाएँ एवं उत्तराध्ययन दशवैकालिक सूत्रों के पद्यानुवाद एवं व्याख्याएँ