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जैन-विभूतियाँ
ईसवी सन् 1962 में राजगृह-स्थित वैभारगिरि के शिखर पर सप्तवर्णी गुफा में उन्होंने चातुर्मास किया था। वहाँ मौन एवं ध्यान के साथ निरन्तर तप-आराधना का क्रम चलता रहा। सूर्य की अतापना भी लेते थे। दर्शक यह देखकर चकित थे कि एक महान् ज्ञानयोगी सन्त, इतना गहन ध्यान-तप-योग भी साधता है। आत्म-दर्शन की गम्भीर चर्चा करने वाला अध्यात्म-पुरुष, कठोर काय-क्लेश तप की आराधना में भी किसी से पीछे नहीं है। गुफा के आस-पास शेर, चीता आदि जंगली जानवरों के गर्जन तथा आवागमन के बीच भी वे निर्भय भाव से अपनी ध्यान-साधना करते रहे। मैत्रीभाव की दिव्य किरणों ने जैसे समग्र वातावरण को भयमुक्त और प्रेम-पूरित कर दिया था। उस साधना-काल में आपने ज्योति:पुरुष तीर्थंकर महावीर के लोक-मंगलकारी सन्देश का अनुभव किया जो कभी इन पर्वत श्रृंखलाओं के आर-पार गूंजा था और जिसने जन-जन के भीतर अध्यात्म चेतना प्रस्फुरित की थी। अमर मुनि ने उन्हीं दिव्य पलों में उस दिव्य सन्देश को पुन: जन-जन तक पहुँचाने का एक वज्र संकल्प लिया। सची आत्मनिष्ठा के साथ किया गया संकल्प कभी निष्फल नहीं होता। 'ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति' - तपोनिरत ध्यानयोगी सन्त का वह शिव संकल्प मूर्तिमन्त हुआ, 'वीरायतन' के रूप में जहाँ सेवा, शिक्षा, साधना, संस्कार की चतुर्दिक धाराएँ प्रवाहित हो रही हैं। मुनिजी की अन्त:स्फुरणा से निकला वह उद्बोधन-सन्देश आज निष्प्राण व्यक्ति में भी प्राणों का संचार कर रहा है।
निरन्तर साधना से उपाध्याय श्री का पार्थिव शरीर अस्वस्थ रहने लगा था। राजगृह की वैभारगिरि पर्वतश्रेणी एवं सप्तपर्णी गुफा से तादात्म्य उन्हें स्वास्थ्य लाभ हेतु कलकत्ता/बम्बई जाने के लिए भी विवश न कर सका। 1 जून, 1992 के दिन राष्ट्रसंत अमर मुनि भौतिक सीमाएँ लांघ महाप्रयाण कर गए।
राजगृह स्थित 'वीरायतन' उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों का प्रतीक है। प्रथम महिला जैन आचार्य चन्दनाजी ने गुरुदेव की ज्ञान सम्पदा को अक्षुण्ण ही नहीं रखा, उसे नई ऊँचाइयाँ दी हैं। पूना के पास स्थित 'नवल वीरायतन' इसका प्रमाण है।