________________
64
जैन-विभूतियाँ लिए संघर्ष करते और अन्त में उसे सार्थक परिणति देते। समाज का प्रबुद्ध वर्ग, युवा-मानस और कार्यकर्ता सदा अमरमुनि के आदर्शों का पुजारी रहा।
स्थानकवासी साधु-साध्वियों के जर्जर विशृंखलित समाज को 'श्रमणसंघ' के नाम से संगठित करने, आचार-विचार की दृष्टि से सुदृढ़ और सुव्यवस्थित करने, शिक्षा, साधना आदि की दृष्टि से गतिशीलता देने में उन्होंने अपनी युवावस्था के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वर्षों का योग दिया। सब कुछ करके भी वे उपाधियों व पदवियों से सदा निर्लिप्त रहे।
वे एक कुशल रचनाधर्मी थे। उनके प्रवचन, लेखन, काव्य, निबन्ध, विवेचन आदि विविध विषयानुसारी कृतियाँ लगभग सौ से भी अधिक हैं। विषय की दृष्टि से वे बहु-आयामी, उदात्त रसास्वादन की दृष्टि से रोचक, मार्गदर्शन की दृष्टि से प्रेरक, साधना की दृष्टि से अनुभूतिप्रधान, जीवन दृष्टि से सम्पन्न और समाज-निर्माण की दृष्टि से क्रान्तिकारी एवं युगनिर्माणकारी थे। मुनिजी की ज्ञान-गरिमा से अभिभूत होकर समाज ने उनको 'उपाध्याय' पद से अलंकृत किया। विश्वविद्यालयों ने उन्हें 'डी-लिट्' की सम्मानित उपाधि से मण्डित किया और भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने उनके राष्ट्रीय अवदानों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए उन्हें 'राष्ट्रसन्त' के सम्मान की चादर ओढ़ायी।