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जैन-विभूतियाँ
63 आचार्यश्री जरा तल्खी से बोले- ''मूर्ख! यह दीपक नहीं, सूर्य है। एक दिन यह समूचे संसार में सूर्य की तरह धर्म का प्रकाश करेगा। ला, इसे मुझे दे दे।'' पिता ने गुरुदेव का आदेश शिरोधार्य किया। पंद्रह वर्ष की अवस्था में ही बालक अमरसिंह, अमर मुनि के नाम से, पूज्य श्री पृथ्वीचन्द्र जी महाराज के शिष्य-रूप में प्रतिष्ठित हुआ। - अमरमुनि में ज्ञान की उत्कट पिपासा थी। उनकी मेधा उर्वर थी
और तर्क-शक्ति प्रखर। जिज्ञासा के जीवित रूप थे वे। अध्यापक उनकी ग्रहण-शक्ति पर चकित थे और गुरुजन मुग्ध। ज्ञान-साधना के साथ ही उनकी काव्य-प्रतिभा में सहज चमत्कार था। आवाज बुलन्द और भाषणशक्ति ओजस्वी। युवावस्था आते-आते अमरमुनि ने समूचे जैन-समाज की दृष्टि को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। आजादी की लहर ने उन्हें भी तरंगित किया और देश-प्रेम, राष्ट्र-भक्ति, स्वतन्त्रता जैसे विषयों पर उनकी कविताओं ने धूम मचा दी। अंग्रेजी सरकार के दबाव में आकर पटियाला-नरेश ने उनके ओजस्वी एवं क्रान्तिकारी भाषणों व काव्यों पर प्रतिबन्ध लगाने का भी प्रयास किया परन्तु कविश्री अमरमुनि के अत्यन्त निर्भीक, सत्यनिष्ठ और तर्कशील विचारों के सामने उन्हें भी झुकना पड़ा। धीरे-धीरे आपकी भक्ति, प्रेम, उद्बोधन और जीवन-स्पर्शी कविताओं ने समूचे समाज को आकर्षित किया और लोग आपको 'कविजी' के आत्मीय सम्बोधन से पुकारने लगे।
मुनि जी का जीवन, प्राचीन ऋषि मुनियों एवं ओलिया फकीरों जैसा निरपेक्ष, निस्संग, मस्त और बेपरवाह था। पाषाण-प्राचीर की भाँति उनका सुदृढ़ स्वाधीन व्यक्तित्व जहाँ प्रतिकूल परिस्थिति व प्रतिरोधियों के लिए दुर्भेद्य रहा, वहीं साधारण जन के लिए कवि जी करुणा के मसीहा और सहृदयता के देवता बनकर उपस्थित रहते थे। ज्ञान, चरित्र, तर्क-साधना, अनुभव आदि के बल पर उनका व्यक्तित्व पूर्णत: स्वनिर्मित था।
वे जड़ता के विरोधी और चैतन्यता के पक्षधर थे। व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठकर वे सदा ही समाज, संघ और मानवता के हितों के