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जैन-विभूतियाँ काठियावाड़ी जैन समाज के हृदय में बसे हुए थे। साम्प्रदायिक व्यामोह एवं लौकिक भय छोड़कर सत्संगार्थी जनों का प्रवाह सोनगढ़ की ओर बढ़ता गया।
उनका कहना था कि जैन धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है। यह तो वस्तु स्वभाव आत्मधर्म है। मूलत: आंतरिक एवं बाह्य दिगम्बरत्व के बिना कोई जीव मुनिपना और मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
कहते हैं संवत् 1994 में साधिका चम्पा बेन को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। संवत् 1995 में गुरुदेव के प्रवचन एवं निवास हेतु भक्तों ने सोनगढ़ में एक नवीन 'श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर' का निर्माण करवाया एवं गुरुदेव ने 'समयसार' परमागम की मंगल प्रतिष्ठा करवाई। संवत् 1995 में 200 मुमुक्षुओं के संघ सहित गुरुदेव ने सिद्ध क्षेत्र शत्रुजय तीर्थ की पावन यात्रा की। राजकोट चातुर्मास के पश्चात गिरिराज गिरनार तीर्थ की यात्रा सम्पन्न कर गुरुदेव संवत् 1997 में सोनगढ़ लौटे। आपकी ही प्रेरणा से वहाँ सीमंधर भगवान के मन्दिर एवं समवशरण मन्दिर की स्थापना हुई। प्रतिष्ठा महोत्सव संवत् 1999 में सम्पन्न हुआ। सौराष्ट्र में दिगम्बर धर्म का नवसर्जन उन्हीं ने किया। इसी बीच विद्यार्थियों एवं गृहस्थों के लिए शिक्षण शिविर आयोजित हुए। इसी वर्ष सोनगढ़ में जैन युवकों के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम स्थापित किया गया। संवत् 2000 में 'आत्मधर्म' नामक गुजराती मासिक पत्र का प्रकाशन शुरु हुआ। सोनगढ़ आध्यात्म तीर्थ धाम बन गया। संवत् 2002 में इन्दौर के सर सेठ हुकुमचन्द आपकी आध्यात्मिक ख्याति सुनकर गुरुदेव के दर्शन हेतु सोनगढ़ आये एवं यहाँ आध्यात्म रसयुक्त वातावरण देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुए। संवत् 2003 में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद का वार्षिक अधिवेशन सोनगढ़ में बनारस के पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री की अध्यक्षता में हुआ। इसी वर्ष बांछिया ग्राम में दिगम्बर जैन मन्दिर का सर सेठ हुकमचन्द के शुभ हस्त से शिलारोपण हुआ। सं. 2005 में छह कुमारिका बहनों ने गुरुदेव के समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया। वे स्वात्मज्ञ चम्पा बहिन के सान्निध्य में जीवन को वैराग्य में ढ़ालने के लिए तत्पर हुई।