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________________ 50 जैन-विभूतियाँ ___ 13. पूज्य कानजी स्वामी (1889-1980) जन्म : उमराला (सौराष्ट्र), 1889 पितश्री : मोतीचन्द श्रीमाल दीक्षा : 1913, उमराला दिवंगति : 1980, सोनगढ़ आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी का जन्म सौराष्ट्र के उमराला ग्राम में सन् 1889 में ओसवाल जातीय श्रीमाल (दसा) गोत्रीय श्री मोतीचन्द भाई के घर हुआ। उनका परिवार श्वेताम्बर जैन स्थानकवासी सम्प्रदाय का अनुयायी था। कानजी को 12 वर्ष की अल्प वय में मातुश्री का वियोग हुआ एवं 16 वर्ष की वय में पिताश्री चल बसे। तब से वे पैतृक दुकान संभालने लगे। उन्हें नाटक देखने का बहुत शौक था। आध्यात्मिक नाटकों के वैराग्यपरक दृश्यों की गहरी छाप इस महान आत्मा के वैराग्य का निमित्त बनी। उनका उदासीन जीवन एवं सरल अन्त:करण देखकर उनके सगे-सम्बन्धी उन्हें भगत कहते थे। संवत् 1970 में बोटाद सम्प्रदाय के श्री हीराचन्दजी महाराज से कानजी स्वामी ने उमराला में दीक्षा ग्रहण की। चन्द वर्षों में ही अगम आगम अभ्यास कर डाला एवं स्थानकवासी सम्प्रदाय में सर्वत्र उनकी चारित्रिक सुवास फैल गई। वे साधु रूप में 'काठियावाड़के कोहिनूर' कहलाने लगे। संवत् 1978 में श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत 'समयसार' के दोहन से कानजी स्वामी के अन्तर्जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। वे वस्तु स्वभाव एवं निर्ग्रन्थ मार्ग के हामी हो गये, क्रियाकाण्ड एवं बाह्य व्रत नियम उनके लिए साधना की अपरिपक्वता के द्योतक बन गये। वेश एवं आचरण की इस विषम स्थिति से पार पाने हेतु उन्होंने संवत् 1992 में सोनगढ़ में स्थानकवासी सम्प्रदाय का त्याग कर दिया। फलत: निन्दा की झड़ी लग गई। स्थानकवासी समाज में खलबली मच गई। किन्तु वे
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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