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जैन-विभूतियाँ
मुनिजी सन् 1929 में स्वदेश लौटे। तभी गाँधीजी द्वारा विश्वविख्यात दांडी कूच एवं नमक सत्याग्रह का आह्वान हुआ । मुनिजी सक्रिय आन्दोलन में सहभागी रहे, जेल गये। जेल में उनका परिचय प्रसिद्ध गुजराती राजनेता एवं विद्या उपासक श्री कन्हैयालाल माणकलाल मुंशी से हुआ। मुनिजी जेल से छूटकर राविन्द्रनाथ ठाकुर के निमंत्रण पर शांति निकेतन गए। वहाँ उनकी भेंट कलकत्ता के प्रमुख जैन साहित्य अनुरागी श्री बहादुरसिंहजी सिंधी से हुई । परिणामतः शांति निकेतन के सान्निध्य में ही ‘‘सिंधी जैन ग्रंथमाला' का शुभारम्भ हुआ । मुनिजी का प्रथम सम्पादित ग्रंथ " प्रबंध चिंतामणि' बहुत लोकप्रिय हुआ। शांति निकेतन में मुनिजी के सद्प्रयास से जैन छात्रावास की स्थापना हुई। श्री बहादुरसिंहजी सिंघी ने मुक्त हस्त इन प्रवृत्तियों की आर्थिक जिम्मेदारी ली। परन्तु बंगाल की जलवायु मुनिजी को रास न आने से तीन साल बाद मुनिजी मुंबई चले आए। यहाँ क.मा. मुन्शी के तीव्र अनुरोध पर उन्होंने 'भारतीय विद्याभवन' में शोध कार्य निर्देशन का भार संभाला एवं सिंधी जैन ग्रंथामला का कार्य भी इससे संयुक्त कर लिया। इस बीच उन्होंने जैसलमेर ज्ञान भंडार के व्यवस्थापकों के निमंत्रण पर पांच महीने वहाँ रहकर लगभग 200 ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ तैयार करवाई एवं भारतीय विद्याभवन की तरफ से उनका सम्पादन / प्रकाशन करवाया । यहाँ मुनिजी ने अनेकों शोधार्थियों का पी. एच डी. अध्ययनार्थ मार्ग निर्देशन किया ।
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आयु वार्धक्य के साथ मुनिजी की जीवन शैली में बड़े सार्थक परिवर्तन आए । उनका ध्यान कृषि, शरीरश्रम एवं स्वावलम्बन पर रहने लगा। सन् 1950 में उन्होंने चित्तौड़ के पास चंदेरिया ग्राम में "सर्वोदय साधना आश्रम'' की स्थापना की। इस बीच 'राजस्थान पुरातत्त्व मंदिर' की योजना बनी एवं मुनिजी उसे समर्पित हो गए। सन् 1952 में उन्हें जर्मनी की विश्वविख्यात 'ओरियंटल सोसाईटी' की मानद सदस्यता अर्पित की गई। यह सम्मान विश्व के प्रमुख विद्वानों को ही प्राप्त हुआ है। सन् 1961 में भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' की उपाधि से सम्मानित किया। राजस्थान पुरातत्त्व मंदिर के अंतर्गत मुनि जी ने इतिहास एवं