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________________ जैन-विभूतियाँ में उन्हें संग्रहणी रोग ने जकड़ लिया। जैन यति देवीहंस से उपचार करवाया। यतिजी ने बालक किशनसिंह की प्रतिभा को पहचाना। उन्होंने भविष्यवाणी करते हुए बिरधीसिंह से कहा- "बालक को पढ़ाओ, यह तुम्हारे कुल का नाम उज्ज्वल करेगा।" सन् 1898 में बिरधीसिंह काल कवलित हो गये। परिवार निराधार हो गया। बालक के पढ़ने की व्यवस्था खटाई में पड़ गई। यह देखकर यति देवीहंसजी ने बालक को अपने पास रख लिया। परन्तु थोड़े ही समय बाद यतिजी का भी देहांत हो गया। बालक की जीवन नैय्या फिर डावांडोल होने लगी। किशनसिंह के मन में ज्ञानार्जन की तीव्र लालसा थी। उसने यतिजी की खूब सेवा सुश्रुषा की थी। उससे यति समुदाय खूब परिचित था। एक अन्य यति गंभीरमलजी ने उनके अध्ययन की व्यवस्था करवा दी। दो-ढाई वर्ष अध्ययन करने के बाद वे चित्तौड़ गये। वहाँ उनका सम्पर्क एक जैन स्थानकवासी साधु से हुआ। उनके साथ रहकर किशनसिंह भी साधु की तरह रहने लगे। उन्होंने जैन शास्त्रों का अध्ययन शुरु किया। पर उनकी जिज्ञासाओं का समाधान न हो पाया। मनोमंथन के बाद उन्होंने सम्प्रदाय छोड़ने की ठानी। एक रात उपाश्रय छोड़कर पैदल ही महाभिनिष्क्रमण पर निकल पड़े। उज्जयिनी के खंडहरों में शिप्रा नदी के तट पर उन्होंने साधु वेश का त्याग कर दिया। रतलाम व अन्य शहरों में विचरण करते अहमदाबार आ पहुँचे। यहाँ भी मन नहीं लगा तो पाली जा पहुंचे। वहाँ सुन्दर विजयजी नामक संवेगी साधु से भेंट हुई। किशनसिंह ने उनसे दीक्षा अंगीकार की एवं 'जिनविजय' नाम धारण किया। थोड़े समय बाद ब्यावर में उनकी भेंट प्रसिद्ध जैनाचार्य विजयवल्लभसूरि से हुई। उन्हें समाधान मिला। वे उनके संघ के अंग बन गए। शास्त्राध्ययन द्रुत गति से होने लगा। जैसे-जैसे जैन शास्त्रों में निष्णात हुए, उनकी रुचि इतिहास शोध की ओर झुकने लगी। राजस्थान के विहारों में उनका आकर्षण इस वीर प्रस्विनी भूमि में बढ़ता गया। पाटण के हस्तलिखित ग्रंथों एवं ताड़पत्रीय हस्तलिखित पांडुलिपियों की प्राचीनता और ऐतिहासिकता के अध्ययन में जिनविजयजी का मन रमता
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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