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जैन- विभूतियाँ
एकांतप्रिय भी था । इस पर नियति ने उनके साहस की कठिन परीक्षा भी ली। दस वर्ष की उम्र में ही पिताजी का देहांत हो गया। दो वर्ष बाद माताजी का वियोग भी सहना पड़ा । विपत्तियों से महापुरुषों की प्रगति का मार्ग खुलता है। घासीलालजी के साथ भी ऐसा ही हुआ। तभी आचार्य जवाहरलालजी का संघ सहित निकट ग्राम में पदार्पण हुआ। बालक पर आचार्यजी के प्रवचन का अद्भुत प्रभाव हुआ । किसी जैन मुनि के प्रवचन - श्रवण का यह प्रथम अवसर था । तत्काल वे दीक्षा अंगीकार करने के लिए उतावले हो उठे। उनकी दृढ़ता देख आचार्यजी आश्वस्त हो गये। सन् 1901 में घासीलालजी जसवंतगढ़ में दीक्षित हुए ।
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गुरु के संग विहार करते हुए घासीलालजी ने शास्त्र अध्ययन के साथ कठोर तपश्चर्या जारी रखी। प्रथम चातुर्मास में ही उन्होंने दशवैकालिक सूत्र कंठस्थ कर लिया। ज्ञानाभ्यास का यह क्रम निरंतर जारी रहा। वे आगम सिद्धांत, दर्शन, ज्योतिष में निष्णात हो गये। उनमें काव्यशक्ति भी मनोमुग्धकारी थे। जल्दी ही उनकी रचनाएँ श्रावकों में लोकप्रिय होने लगी। तदनन्तर उनके चातुर्मास दक्षिण प्रदेशों में हुए । सन् 1943 का चातुर्मास सौराष्ट्र में हुआ। सन् 1957 से लगातार सोलह चातुर्मासों का समय उन्होंने अहमदाबाद में स्थिर रहकर आगम शोध सम्पादन एवं अनुवाद करने में लगाया । इस भागीरथ प्रयत्न को आचार्य जवाहरलालजी का आशीर्वाद प्राप्त था । कुल 32 आगम ग्रंथों का व्यवस्थित प्रकाशन उनके जीवन की चरम उपलब्धि थी । ऐसा प्रयास जैन साहित्य के इतिहास में सर्वप्रथम हुआ। उनके इस उपकार से समाज धन्य हुआ। कोल्हापुर के महाराजा ने उन्हें "राजपुरुष" एवं "शासनाचार्य' के विरुद से विभूषित किया। करांची के जैन संघ ने मुनिश्री साहित्य - साधना एवं जीवन में त्याग की उत्कृष्टता के लिए उन्हें "जैन दिवाकर" एवं "जैन आचार्य" पदों से विभूषित किया। स्थानकवासी समाज इस महान् ज्योतिर्धर आचार्य के आलोक से गौरवान्वित हुआ। उनके विशाल रचित / सम्पादित साहित्य का संक्षिप्त विवरण निम्नत: है