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________________ 40 जैन-विभूतियाँ ____ उनका संपूर्ण जीवन एक साधु की तरह ही बीता। लेकिन कभी उन्होंने अपने को त्यागी या साधु नहीं. बताया। वे कहते थे कि असल में साधु तो वह है जिसे अपने साधु होने का पता तक नहीं चलता। उनकी इस परिभाषा के अनुसार विभिन्न धर्मों का लेबल लगाकर या लक्षण अपनाकर भ्रमण करने वाले साधु अपने-अपने ढंग की दूकानदारी चलाते हैं। उस दृष्टि से उनकी समाजसेवा परक 'ग्यारह प्रतिभाएँ' और "सत्य की खोज' पुस्तकें अद्भुत हैं। महात्माजी स्वतंत्र चिंतक और विचारक थे। कल्पना और शास्त्रीय ज्ञान के प्रवाह में न बहकर अनुभव के आधार पर अपनी बात कहते थे। उन्होंने न किसी का लिहाज किया, न ठाकुर सुहाती कही। उनके जैसे स्पष्टवादी, निर्भीक, प्रखर चिंतक, प्रभावशाली विचारक हमारे देश में मुश्किल से मिलेंगे। सन् 1756 या 57 में वे नागपुर में स्व. पूनमचंदजी रांका के यहाँ अपनी विधवा पुत्रवधू तथा दो पौत्रों के साथ रहते थे और कहीं से कोई आर्थिक सहायता नहीं थी। तब श्री जमनालाल जैन एवं यशपालजी के प्रयास से उनको राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसादजी के हाथों 25 हजार रुपयों की थैली अर्पित की गई तथा सर्वसेवा संघ प्रकाशन की ओर से उन्हें एक सौ पचास रुपये मासिक की सहायता देना शुरु किया गया। सर्वसेंवा संघ, भारत जैन महामंडल, पूर्वोदय प्रकाशन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, भारतीय ज्ञानपीठ आदि से उनकी लगभग 30 पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। वे प्रतिदिन सवेरे नागपुर में पूनमचंदजी रांका को एक विचार लिखते थे। उनकी एक विशेषता यह थी कि वे ज्ञान को पैसे से नहीं तौलते थे। उन्होंने कभी नहीं पूछा कि उनकी कितनी किताबें छपी, कहाँ छपी। लिखाइ और भूल गये। इस सन्दर्भ में वे गाँधीजी से भी आगे थेनि:संग निर्मोही। गाँधीजी ने तो अपने लेखन के अधिकार नवजीवन ट्रस्ट को दे दिये, पर इन्होंने तो यही कहा कि 'जो चाहे छापे, मेरा कोई अधिकार नहीं' - यह बहुत बड़ी बात है। 80 वर्ष की आयु में नागपुर में उनका देहावसान हुआ।
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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