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जैन- विभूतियाँ
जाती है । वे कहते थे कि धर्म को भी विकासशील और निरंतर खोजमय होना चाहिए। आज का तथाकथित धर्म दुनिया में प्रगति नहीं कर रहा है, वह जीवन और जगत की समस्याओं को सुलझाने में विज्ञान के साथ कदम नहीं बढ़ा रहा है, स्थिर हो गया है। इसी कारण वह धर्म नहीं रह गया है-रूढ़ियाँ एवं थोथी परम्परा बन गया है। वहाँ बुद्धि कुंठित हो गई है।
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रीति-रिवाजों के प्रति उनका दृष्टिकोण यह था कि लोग प्रत्येक रीति या परम्परा की असलियत को समझ लें, फिर उसे अपनाये रहें या त्याग दें। उनका निश्चित मत था कि हर रीति या परम्परा के पीछे कोई-न-कोई आवश्यकता या घटना होती है और वह या तो व्यक्तिगत होती है या सामाजिक होती है। बिना समझे-बूझे, मूल तक पहुँचे बिना किसी परम्परा को अपनाये रखना विकास में बाधक है। जैसे उन्होंने मंदिरों में, मूर्ति के आगे आरती करने की प्रथा को रूढ़िगत माना। एक समय ऐसा था जब मूर्तियाँ तलघर में या अंधेरे में रखी रहती थीं, उनकी रक्षा जरूरी थी । अतः दीपक जलाये रखा जाता था । पर एक जगह रखे रहने से मूर्ति का सर्वांगदर्शन नहीं हो पाता था। अतः दीपक हाथ में लेकर घुमाया जाने लगा। यह बन गया आरती का रूप । वह अखंड जलता रहे, अत: उसे धर्म-पुण्य का रूप मिल गया। फिर उसमें नृत्य आदि की कला जुड़ गयी। पर आज तो बिजली और प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था है। तब पुण्य के नाम पर अखंड दीपक में घी जलाने का क्या अर्थ है ?
धर्म के साथ जैन, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख आदि के विशेषण उनकी दृष्टि में व्यर्थ हैं। बालकों को धर्म कैसे समझाया जाए ? इस पर उनका मानना था कि धर्म तो पाँच व्रत ही हैं। इन पाँच व्रतों की ठीकठीक शिक्षा देना ही सच्चे धर्म की शिक्षा है। अहिंसा का सीधा-सरल अर्थ है - प्रेम, प्यार, स्नेह । प्रेम या प्यार के जितने पहलू हो सकते हैं - बच्चों को कथाओं के द्वारा सिखा दीजिये। उन्होंने अहिंसा और सत्य पर - "प्यारा प्रेम" और सलोना सच' नाम से 20-20 कहानियों की चार पुस्तकें लिख दीं, जो भारत जैन महामंडल वर्धा से प्रकाशित हुई । विशेषण या चिप्पी वाले धर्म को वे दूकानदारी समझते थे।