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________________ जैन- विभूतियाँ 38 और जो अनुभव खुले दिल-दिमाग से किया था वह केवल शास्त्रीय या शाब्दिक नहीं था। मानवीय जीवन तथा प्राकृतिक वातावरण के आधार पर उन्होंने धर्म की छोटी-छोटी बातों को, मान्यताओं और सिद्धान्तों को जाँचा, परखा और तौला था । यही कारण है कि उन्हें त्यागों का भी त्याग करने में एक मिनट नहीं लगा। वे सातवीं प्रतिमाधारी और रस परित्यागी ब्रह्मचर्यव्रती थे। लेकिन जब उन्होंने ग्यारह प्रतिमाओं का यथार्थ विश्लेषण किया तो प्रतिमा त्याग दी। गुरुकुल के कार्यकाल में छात्रों के साथ जो अनुभव उन्हें हुआ उस पर उनकी दो पुस्तकें "माता-पिताओं से" तथा "बालक सीखता कैसे है" - महत्त्वपूर्ण हैं । अध्यापकों के लिए उन्होंने ‘बालक अपनी प्रयोगशाला में' बहुत ही सुन्दर वैज्ञानिक विश्लेषण युक्त पुस्तक लिखी । महात्माजी तप और त्याग की साक्षात मूर्ति थे। जैन समाज की सेवा के लिए उन्होंने स्टेशन मास्टर की नौकरी छोड़ दी। उनकी मूल वृत्ति साथक की थी। धर्म की प्यास इतनी उत्कट थी कि घर बार छोड़कर तीर्थों की यात्रा की, जंगल पहाड़ घूमे। साथ ही राष्ट्रीय प्रेम इतना प्रबल था कि आन्दोलन प्रारम्भ यानि सन् 1918 में ही ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। सन् 1934 तक वे राष्ट्रीय प्रवृत्तियों से जुड़े रहे। जेल में उन्होंने बहुविध साहित्य की रचना की । राष्ट्रीय अध्याय के बाद जीवन का समन्वय युग प्रारम्भ हुआ जिसमें उन्होंने बालकोपयोगी साहित्य की रचना की । उनके लेख 'विश्ववाणी' एवं 'जैन संस्कृति' में बराबर छपते रहे। उनकी रचनाएँ " आत्म धर्मपरायणता' से वेष्ठित रहती थी अतः उनमें क्रांति - स्पन्दन एवं स्थायित्व होता था । वे किसी भी काल खण्ड में निस्तेज नहीं होंगी । " तत्त्वार्थ सूत्र' को वे आत्म दर्शन का मूलाधार कहते थे। ऋषभ - ब्रह्मचर्याश्रम उसका मूर्तीमंत भाष्य कहा जा सकता है। वे उस धर्म और दर्शन के विरोधी थे जो विज्ञान के साथ मेल नहीं खाता | विज्ञान निरन्तर प्रगतिशील है, उसका निरन्तर विकास होता रहता है और बीते दिन की खोज आज पिछड़ी, पुरानी और गलत हो
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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