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जैन-विभूतियाँ 10. महात्मा भगवानदीन (1884-1962)
जन्म : अतरौली (अलीगढ़) 1882 पिताश्री : गंगारामजी मित्तल ब्रह्मचर्य व्रत : 1908 प्रमुख लेखन : सत्य की खोज,
प्यारा प्रेम सलोना सच दिवंगति : नागपुर, 1962 हजारों वर्षों से सत्य की खोज हो रही है। मेधावी दार्शनिक ऋषि मुनि एवं साधक सत्य की खोज में संलग्न रहे। किसी ने ईश्वर को ही सत्य कहा, किसी ने सत्य में ही ईश्वर देखा। प्रत्येक मनुष्य की अपनी अनुभूति है। एक के लिए जो सत्य है, वह दूसरे के लिए सत्य नहीं भी हो सकता है। मुश्किल तभी होती है, जब सत्य के लिए हमारा आग्रह प्रबल हो उठता है। इस द्वन्द्वात्मक भौतिक जगत में सत्य सापेक्ष ही है। पर अपने सत्य की प्रतिष्ठा के लिए हम दूसरे के सत्य को अपदस्थ करने के लिए लालायित हो उठते हैं। महात्मा भगवान निरन्तर सत्य की खोज में लगे रहे। उनकी निर्मल पारदर्शी दृष्टि ने असत्य के आग्रह से दूर रह जीवन सत्य के नाना रूपों में उद्भाषित किया।
महात्मा भगवान दीन का जन्म अलीगढ़ के समीप अंतरौली ग्राम में श्री गंगारामजी मित्तल की धर्मपत्नि की रत्नकुक्षि से सन् 1882 में हुआ।
महात्माजी जन्म से जैनी थे। उन्होंने 26 वर्ष की भरी जवानी में घर बार तजकर सन् 1911 में एक जैनगुरुकुल (ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम) हस्तिनापुर (मेरठ) में स्थापित किया था। लेकिन उस गुरुकुल को वे 6 वर्ष से अधिक नहीं चला सके, क्योंकि समाज जिस प्रकार के वातावरण, संस्कार तथा रीति-रिवाजों का हामी था, वह महात्माजी के लिए कोई महत्त्व नहीं रखता था। उन्होंने जैनधर्म और दूसरे धर्मों का जो अध्ययन