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जैन-विभूतियाँ परिप्रेक्ष्य आपने इतना सुदृढ़ एवं विस्तीर्ण बना दिया कि ग्रंथ सभी जैन सम्प्रदायों में लोकप्रिय हुआ।
मारवाड़ आपके विहार का प्रमुख क्षेत्र रहा। ओशिया, फलोदी, लोहावट, नागौर, रूण, कुचेरा, खजवाणा, बीलाड़ा, पीपाड़ बीसलपुर, खारिया, सायरा, सादड़ी, लुणावा आदि स्थानों पर आपने जैन पाठशालाओं, जैन कन्याशालाओं, जैन लाइब्रेरी, जैन मित्रमंडल आदि संस्थाओं की एक लम्बी श्रृंखला निर्मित कर दी। ओसवाल जाति की उत्पत्ति एवं अभ्युदय को "वीरात् 70 वर्षे'' का तर्कपूर्ण आधार देने का श्रेय मुनि ज्ञान सुन्दरजी को ही है। ओसवाल जाति के इतिहास को एक ठोस धरातल पर खड़ा करने का श्रेय भी उन्हीं को है। इससे पूर्व यति रामलालजी (महाराज वंश मुक्तावली, 1910) प्रभृति यतियों ने उपासरों में उपलब्ध विभिन्न गोत्रों की वंशावलियाँ संजोकर ओसवाल इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास अवश्य किया था परन्तु गोत्रों की उत्पत्ति विषयक कथानकों में अतिशयोक्ति एवं कल्पनापूर्ण वैविध्य डालकर उन्हें बौद्धिक रूप से अग्राह्य बना दिया था। मुनि ज्ञानसुन्दरजी ने विभिन्न गोत्रों की उत्पत्ति का वैज्ञानिक आधार ढूँढ़ा। उन्होंने पुरातत्त्व और इतिहास के समन्वय से अपने लेखन को प्रामाणिकता दी। कुल मिलाकर उन्होंने 171 पुस्तकें लिखी व सम्पादित की।