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________________ जैन-विभूतियाँ 35 स्वर्गवास हो गया। सन् 1906 में वे धर्मपत्नि के साथ प्रवास पर थे। रतलाम में श्रीलालजी महाराज का व्याख्यान सुनने का मौका मिला। बालक ने तत्काल सांसारिक बंधनों से मुक्त होने का संकल्प कर लिया। घर भी नहीं लौटे। वहीं रहकर स्वाध्यायरत रहने लगे। अन्तत: झामूणियाँ ग्राम में आप स्थानक वासी सम्प्रदाय में दीक्षान्वित हुए। चन्द वर्षों में आप शास्त्र वाचन में निष्णात हो गये। उनके ओजस्वी एवं हृदयग्राही व्याख्यानों में समाज-सुधार, धर्मप्रेम एवं साहित्य अन्वेषण के प्रेरक तत्त्व समाहित रहते थे। गृहस्थ जैन विद्वान जोधपुर के श्री फूलचन्द्रजी के सान्निध्य में आपने सूक्ष्म एवं निष्पक्ष दृष्टि से शास्त्रों का परायण आरम्भ किया। सन् 1914 में ओशिया ग्राम में आपकी भेंट तीर्थ उद्धारक योगिराज श्री रत्नविजय जी से हुई। मुनि रत्नविजयजी के प्रभाव से वे मूर्ति पूजा की ओर झुके। सन् 1915 में ओसिया में रत्नविजयजी से पुन: दीक्षा ली एवं मुनि ज्ञानसुन्दर नाम धारण कर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघ का अंग बन गये। आपने गुरु महाराज की आज्ञा से ओसिया-समारम्भित पार्श्ववर्ती उपकेशगच्छ की क्रियाएँ धारण की। आपने ओसिया में जैन विद्यालय एवं जैन बोर्डिंग की स्थापना की। फलौदी में श्रावक वर्ग को प्रेरणा दे समाज की साहित्य रुचि के विकासार्थ आपने "श्री रत्नाकर, ज्ञान पुष्पमाला'' की स्थापना कर पुस्तकें प्रकाशन का शुभारम्भ किया। वहाँ जैन लाइब्रेरी की स्थापना हुई। सन् 1919 में ओसिया में ''श्री रत्नप्रभ सूरि ज्ञान भण्डार'' की स्थापना की-यहाँ हस्तलिखित एवं प्रकाशित पुस्तकों का संग्रह होने लगा। आपने मूल सूत्रों के हिन्दी अनुवाद कर प्रकाशित किये। हर वर्ष 4-5 पुस्तकों का सर्जन/प्रकाशन हजारों की संख्या में होने लगा। 'फलौदी' आपकी साहित्य उपासना का चर्चित धाम बन गया। आप प्रसिद्ध विद्वान्, इतिहासकार पं. गोरीशंकर ओझा से मिले। अनेक स्थानों पर ग्रंथागार स्थापित किये। सन् 1925 से "जैन जाति महोदय'' नामक वृहद् ग्रंथ का संयोजन संकल्पित हुआ। सन् 1929 तक उसके 6 भाग प्रकाशित हुए। इस ग्रंथ का ऐतिहासिक
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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